बलिदान दिवस पर विशेष
भारत के स्वतंत्रता संघर्ष के दौरान बलिदान हुए क्रांतिकारियों के बलिदान दिवस अथवा जन्म तिथि पर, गत दो वर्षो से, सोशल मीडिया पर प्रसारित एवं प्रचलित संदेशों तथा विभिन्न अवसरों पर आयोजित काव्य-कथा-विचार गोष्ठियों में प्रस्तुत युवाओं की भावनाओं से यह प्रतीत होता है कि आजादी के लिए हुए राजनैतिक आंदोलन की तुलना में वे क्रांतिकारी संघर्ष को अधिक महत्वपूर्ण मानते हैं। वास्तव में इस तथ्य के पीछे अधिकांश युवा वर्ग की वह मूल राष्ट्रवादी विचार धारा है जो स्वतंत्रता पूर्व भी थी और आज की परिस्थितियों में भी है।
क्रांतिकारी साहित्य की लगभग सभी पुस्तकों एवं संदर्भ पत्रिकाओं में सामान्यत: यह उल्लेख मिलता है कि क्रांतिकारियों के आचार, विचार और व्यवहार समाजवाद अथवा साम्यवाद पर आधारित थे। प्रत्यक्ष क्रांतिकारी गतिविधियों के दौरान वे ''हिन्दुस्तान रिपब्लिक एसोसिएशन'' तथा ''हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी'' के सदस्य के रूप में विप्लवी संघर्ष करते थे। 8 अप्रैल 1929 के दिन दिल्ली स्थित अंगे्रज सरकार के असेम्बली हॉल में भगत सिंह एवं बटुकेश्वर दत्त ने बम विस्फोट के बाद अपने आप को गिरफ्तार कराते समय इंकलाब ंिजंदाबाद और साम्राज्यवाद का नाश हो के नारे लगाए थे। उन नारों को समाजवाद का प्रतीक मानकर ही साम्यवादी लोग केवल 23 मार्च को ही क्रांतिकारियों की प्रतिमाओं पर सम्मान का प्रदर्शन करते हंै, जो कि प्रशंसनीय है, लेकिन धर्म क्रांति से राष्ट्र क्रांति के माध्यम से देश रक्षा हेतु जीवन का बलिदान देने बाले सिक्ख गुरूओं, मंगल पाण्डे, वीरांगना लक्ष्मी बाई, तात्या टोपे जैसें क्रांतिवीरों के अनुपम साहस एवं त्याग के प्रति उनकी उदासीनता सर्व ज्ञात है। वास्तविकता यह है कि अपना जीवन बलिदान करने के लिए, क्रांतिकारियों को अदम्य साहस एवं शक्ति की प्रेरणा, उन्हें बाल्यकाल में प्राप्त देशभक्ति से परिपूरित पारिवारिक संस्कारों, तरुणावस्था में प्रखर राष्ट्रवादी मार्गदर्शन को तथा स्वयं के पूर्व की बलिदानी परम्पराओं से प्राप्त हुई थी। यह तथ्य 23 मार्च की तिथि से संबंधित चार क्रांतिकारियों की पारिवारिक पृष्ठ भूमि, तथा शौक्षणिक जीवन एवं उनके क्रांतिकारी संघर्ष के प्रसंगों से स्पष्ट है।
शहीद भगत सिंह - सरदार भगतसिंह का जन्म 28 सितम्बर 1907 को पंजाब में लायलपुर के एक क्रांतिकारी परिवार में हुआ था तथा बाल्यावस्था की दीक्षा और तरूण आयु की शिक्षा भी उसे वतन परस्ती से ओत प्रोत वातावरण में मिली थी। पिता किशन सिंह एवं चाचा अजीत सिंह न केवल स्वयं आजादी के आंदोलन में सक्रिय रहते थे बल्कि भूमिगत क्रांतिकारियों की आर्थिक सहायता भी करते थे। पारिवारिक सम्पन्नता होने के बावजूद उनकी पढ़ाई प्रारम्भिक अंग्रेजों के कृपापात्र विद्यालय में न होकर लाहौर के दयानन्द वैदिक विद्यालय में हुई। आर्य समाज के प्रमुख साधक भाई परमानंद द्वारा संचालित नेशनल कॉलेज में प्रखर राष्ट्रवादी आचार्य चन्द्रकांत विद्यालंकार ने उनको क्रांति के माध्यम से स्वाधीनता संघर्ष करने के लिए मार्गदर्शन दिया। प्रारम्भ में राष्ट्रवादी संस्था नौजवान भारत सभा के माध्यम से नवयुवकों में देशप्रेम की भावना जाग्रत करते रहे। अंग्रेजों द्वारा किए गए जलियांवाला नरसंहार तथा लाला लाजपतराय के आहत होने से आक्रोशित वे क्रांतिकारी मार्ग पर चल पड़े। हिन्दुस्तान रिपब्लिक एसोसिएशन तथा हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी जैसी समाजवादी विचार धारा की संस्थाओं में उनकी सहभागिता केवल आजादी के लिए लडऩे को इच्छुक अन्य सहयोगियों से सहयोग प्राप्त करने के उद्देश्य से थी। ''एसोसिएशन को आर्मी'' में बदलने का उनका कार्य उनको प्राप्त राष्ट्रवादी संस्कारों को प्रदर्शित करता है। विवाह के आदेश को विनम्रता पूर्वक अमान्य करते हुए उन्होंने अपने पिता परिजनों से कहा कि '' मेरे लिए क्रांति इश्क है और आजादी दुल्हन''। विप्लव के ऐसे साहसिक तरीकों से देश के लिए जीवनव्रत अपनाने के ऐसे अद्भुत विचार प्रखर राष्ट्रवाद से सिंचित समाजवादी के ही हो सकते हैं। 23 मार्च 1931 को हुआ उनका महान बलिदान आज भी युवा पीढ़ी के लिए प्रेरणा का स्रोत है।
शहीद सुखदेव - पंजाब में लुधियाना के थापर परिवार में 15 मई 1907 को जन्मे सुखदेव के जन्म से तीन माह पूर्व ही उनके पिता का देहांत हो चुका था। परन्तु उनका बचपन एवं तरूणाई भगतसिंह के नगर लायलपुर एवं लाहौर में बीते। धर्मपरायण माता एवं आर्यसमाजी साधक ताऊ लालाअचिंतनराय ने उन्हें आस्था एवं देशभक्ति के संस्कार दिए। स्थानीय धनपतराय आर्य विद्यालय तथा सनातन विद्यालय जैसी संस्थाओं में उन्हें वैदिक दीक्षा के साथ-साथ राष्ट्रभक्ति की प्रेरणा प्राप्त हुई। ताऊ अचिंतनराय को अंग्रेजों द्वारा दी गई यातना से उनके तरुण मन में भी अंग्रेजों के विरूद्ध विद्रोही विचार प्रबल होने लगे। नेशनल कॉलेज में आचार्य चन्द्रकांत विद्यालंकार के सिखाए प्रखर राष्ट्रवाद तथा वहीं पढ़ रहे भगतसिंह के विप्लवी विचारों से प्रेरित होकर हिन्दुस्तान रिपब्लिक एसोसिएशन और बाद में हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिक आर्मी में सम्मिलित होकर क्रांति के पथ पर चल दिए। उनके प्रारम्भिक जीवन की इस पृष्ठभूमि से स्पष्ट है कि समाजवादी संस्था का सहारा उन्होंने केवल क्रांति कि उद्देश्य की पूर्ति के लिए लिया था, जब कि प्रखर स्वाधीनता की घुट्टी तो वे जन्म से ही पिए हुए थे। भगत सिंह की भांति विवाह के प्रसंग पर सुखदेव ने अपनी बहन से कहा था कि ''घोड़ी पर चढऩे के बदले मैं फांसी पर चढऩा पसन्द करूंगा''। 1907 में भगतसिंह के साथ जन्मे सुखदेव ने उन्हीं के साथ ही 23 मार्च 1931 को देश रक्षा हेतु अपना जीवन न्यौछावर कर दिया।
शहीद राजगुरू - महाराष्ट्र में पूना के खेड़ा गांव में 1909 में जन्मे ''शिवराम हरि राजगुरू'' छत्रपति शिवाजी महाराज के प्रपौत्र छत्रपति साहू के राजगुरू के वंशज थे। अत: धर्मरक्षा, राष्ट्रभक्ति और बलिदान के संस्कार अनुवांशिक वरदान के रूप में प्राप्त हुए थे। वे बाल्यावस्था में ही पिता के आश्रय से वंचित हो गए। बड़े भाई के कड़े अनुशासन और पाठशाला के बंधन उन्हें पसंद नहीं थे। एक दिन बिना बताए घर से चले गए और मात्र नौ पैसे की राशि साथ लेकर पूना, नासिक, कानपुर, लखनऊ होते हुए देश की अस्मिता के केन्द्र वाराणसी पहुंचकर, वहां अहिल्या धाट पर सेवा करते हुए संस्कृत आश्रम में अध्ययन करने लगे। आश्रम के आचार्य से देश की संस्कृति एवं प्रतिष्ठा की रक्षा करने की प्रेरणा लेकर बाद में वे लाहौर पहुंचे। लाहौर में उन्हें नौजवान भारत सभा तथा हिन्दुस्तान रिपब्लिक एसोसिएशन के क्रांतिकारी सदस्यों के साथ लाहौर बम षड्यंत्र कांड में अंग्रेज पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया। 23 मार्च 1931 को उन्होंने भी भगत सिंह, सुखदेव के साथ अपना जीवन बलिदान कर दिया।
-डॉ. सुखदेव माखीजा