भारत उत्सव प्रिय उल्लासधर्मा देश है। सतत् कर्म यहां जीवन साधना है। पूरे वर्ष कर्म प्रधान जीवन और बीच-बीच में पर्व त्योहार और उत्सवों का आनंद। भारत के मन का मूल उत्स सांस्कृतिक है। उत्स का अर्थ है केन्द्र। उत्सव परिधि है। उत्सव उल्लासधर्मा होते हैं। वे भारत के लोक को भीतर और बाहर तक आच्छादित करते हैं। मकर संक्रान्ति का उत्सव ऐसा ही है। यह भारत के सभी हिस्सों में मनाया जा रहा है। नदियों में कड़ाके की ठंड के बावजूद स्नान ध्यान, पूजन और आनन्द। हम भारत के लोग उत्सवों में समवेत होते हैं, आनन्दित होते हैं। संप्रति मकर संक्रान्ति के अवसर पर ग्रामीण क्षेत्रों में भी आनंद की लहर है।
भारतीय चिंतन में सूर्य ब्रह्माण्ड की आत्मा हैं। सूर्य सभी राशियों पर संचरण करते प्रतीत होते हैं। वस्तुत: पृथ्वी ही सूर्य की परिक्रमा करती है। आर्य भट्ट ने आर्यभट्टीयम में लिखा है, ''जिस तरह नाव में बैठा व्यक्ति नदी को चलता हुआ अनुभव करता है, उसी प्रकार पृथ्वी से सूर्य गतिशील दिखाई पड़ता है।'' सूर्य धनु राशि के बाद मकर राशि में प्रवेश करते हैं तो इसे मकर संक्रान्ति कहा जाता है। सूर्य का मकर राशि पर होना उपासना के लिए सुन्दर मुहूर्त माना जाता है। वराहमिहिर ने बृहत संहिता में बताया है, ''मकर राशि के आदि से उत्तरायण प्रारम्भ होता है।
सूर्य अजर अमर है। ऋग्वेद के एक सूक्त में ऋषि अपने यज्ञ में पृथ्वी अंतरिक्ष और समस्त देवलोक को निमंत्रण देते हैं। वे वरुण, इन्द्र, मरुत और जल को भी आहूत करते हैं। वे देवों से समृद्धि की कामना करते हैं। अंत में सूर्य सविता देव का स्मरण करते हैं, ''सविता पश्चातात सविता-सविता हमारे पीछे हैं। फिर कहते हैं,''पुरस्तात सवितोतर सविता धरातात-सविता सामने हैं। ऊपर हैं। नीचे हैं। ये सविता हमें सुख व समृद्धि दें। दीर्घायु भी दें। सविता सूर्य की उपस्थित दशों दिशाओं में है। यही तेजोमय सविता मकर राशि पर हैं। उनके अभिनन्दन की सुन्दर मुहूर्त है मकर संक्रान्ति। पुण्यदायी नदियों में स्नान की भी परंपरा है। तुलसीदास ने रामचरितमानस में मकर संक्रान्ति के अवसर के लिए प्रयागराज का शब्द चित्र बनाया है, ''माघ मकरगत रबि जब होई। तीरथपतिहिं आव सब कोई।'
ऋग्वेद के रचनाकाल से लेकर उपनिषदों, महाकाव्यों और परवर्ती संस्कृतिमूलक साहित्य में सूर्यदेव की चर्चा है। प्रश्नोपनिषद (1-5) में कहते हैं कि, ''आदित्य ही प्राण हैं। छान्दोग्य उपनिषद में कहते हैं, ''जैसे मनुष्यों में प्राण महत्वपूर्ण हैं वैसे ही ब्रह्माण्ड में सूर्य हैं। सूर्य के कारण इस पृथ्वी ग्रह पर मनुष्य का जीवन है। सूर्य दिव्य हैं। तेजोमय दिव्यता हैं। सूर्य ऊष्मा ऊर्जा व प्रकाश का अक्षय भण्डार हैं। प्रत्येक ताप का ईंधन होता है। इसी तरह तेजोमय सूर्य ताप के पीछे भी कोई कारण/ईंधन होना चाहिए। सूर्यदेव अरबों वर्ष से तप रहे हैं।
हम सब सूर्य परिवार के अंग हंै। ऋग्वेद के प्रथम मण्डल (सूक्त 164) के प्रथम मंत्र में सूर्यदेव के तीन भाई बताए गए हैं। उनके सात पुत्र हैं। तीन भाइयों में वे स्वयं, दूसरे सर्वव्यापी वायु और तीसरे तेजस्वी अग्नि। सूर्य के रथ का वर्णन सुन्दर है, ''सूर्य के एक चक्र वाले रथ में सात घोड़े हैं। सात नामों वाला एक घोड़ा रथ खींचता है। आगे सात शब्द का दोहराव है, ''सात दिन, सात अश्व, सात स्वरों में सविता सूर्य की स्तुति करती सात बहनें। वैसे भी सूर्य प्रकाश में सात रंग हैं। ध्वनि में सात स्वर हैं। सप्ताह में सात दिन हैं। ऋषि जिज्ञासा है, 'इस ब्रह्माण्ड में सबसे पहले जन्म लेने वाले को किसने देखा? जो अस्थि रहित होकर भी सम्पूर्ण संसार का पोषण करते हैं। पूर्वज सविता सूर्य की आतंरिक गतिविधि जानना चाहते हैं, ''यह विज्ञ सप्त तंतुओं-किरणों को कैसे फैलाते हैं। ऋषि जानकारी की सीमा बताते हैं,मैं नहीं जानता लेकिन जानना चाहता हूँ। सभी लोकों को स्थिर करने वाले अजन्मा का रूप क्या है? जो सूर्य रहस्य के जानकार हैं, कृपया वे बताएं। अंत में कहते हैं, ''बारह अरों वाला चक्र द्युलोक में घूमता रहता है। वह अजर अमर है।
सूर्य अभिभावक हैं। संरक्षक हैं। गीता (4-1) में ज्ञान परंपरा है। श्रीकृष्ण कहते हैं, ''मैंने योगविद्या का ज्ञान सबसे पहले विवस्वान सूर्य को दिया था। सूर्य ने मनु को और मनु ने इक्ष्वाकु को यही ज्ञान दिया। सूर्य जीवनदाता हैं। आराध्य हैं। विश्व की सभी संस्कृतियों में सूर्य प्रत्यक्ष देव हैं। सूर्य उपासना यूनान में भी थी। वैदिक मन्त्रों में सविता सूर्य और ऊषा अलग अलग स्तुतियां पाते हैं। लेकिन यथार्थ में वे एक ही सूर्य के भिन्न भिन्न आयाम हैं। डॉ. कपिल देव द्विवेदी ने 'वैदिक देवताओं के आध्यात्मिक और वैज्ञानिक स्वरूप पर किताब लिखी है। उन्होंने लिखा है कि 'सविता ही सूर्य हैं। सविता का अर्थ प्रेरणा शक्ति देने वाला प्रेरक। गति देने वाला। सूर्य इस संसार को प्रेरणा और प्रकाश देते हैं। इसलिए सूर्य को सविता भी कहते हैं। सूर्य उपास्य हैं।
ऊषा देवी भी उन्हीं का एक आयाम हैं। ऋषि कहते हैं, ''सविता सूर्य विश्वरूपाणि हैं और ऊषा के बाद प्रकाशित होते हैं।'' ऋग्वेद (1-141-2) में अग्नि के तीन रूप बताए गए हैं। पहला भौतिक अग्नि। दूसरा मेघों बादलों में विद्युत रूप अग्नि और तीसरे सूर्य। ऊषा देवी सूर्योदय के पहले की आभा हैं। ऊषा की स्तुति में कहते हैं, ''ऊषा स्वर्ग की कन्या जैसी प्रकाश के वस्त्र धारण करके प्रतिदिन पूरब से वैसे ही आती हैं जैसे विदुषी नारी प्रकृति के शाश्वत नियमों के अनुसार चलती है।ÓÓ यहाँ ऊषा का वस्त्र प्रकाश है। आगे बताते हैं जैसे भद्र नारियां सोए हुए परिजनों को जगाती हैं। वैसे ही ऊषा भी सोने वालों को जगाती हैं। ''वैदिक समाज के लोग प्रात:काल उठते थे। वे सूर्योदय देखते थे। आनंदित होते थे। सूर्य नमस्कार करते थे।
ऊषाकाल वैदिक समाज के लोगों का जागरण काल है। ऋषि ने ऊषा को लेकर सुन्दर मंत्र रचे हैं। कहते हैं कि 'यह ऊषा जैसे पति से मिलने के लिए मुस्कराती हुई अपना सौंदर्य प्रकट करती है। ऋषियों का भावबोध सौंदर्यबोध भी बहुत गहरा है। कहते हैं, ''ऊषा अपने पराए का भेद नहीं करती। जैसे छोटी बहन बड़ी बहन के लिए स्थान खाली कर देती है वैसे ही रात्रि रूपी छोटी बहन बड़ी बहन ऊषा के लिए अपने स्थान से हट जाती है।
ऋषियों के मन में अच्छे लोगों के आदर के लिए भेदभाव भी हैं। स्तुति है, ''हे ऊषा आप कंजूस लालची कोन जगाएं। कर्मठ संघर्षशील लोगों को ही जगाएं। प्रार्थना यह भी है कि वे हमारी बुद्धि को सत्कर्मों के लिए प्रेरित करें।'' ऊषा जैसा मनोरम चरित्र दुर्लभ है। गायत्री मंत्र में भी सूर्य सविता की स्तुति है। ऋग्वेद (3-62-10) के अनुवाद में सातवलेकर कहते हैं, ''हम सविता देव के उस श्रेष्ठ वरण करने योग्य तेज का ध्यान करते हैं। वे सविता हमारी बुद्धियों को उत्तम मार्ग के लिए प्रेरित करें-तत्स वितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो योन: प्रचोदयात। मकरसंक्रांति के अवसर पर इसी मंत्र का पुरस्चरण करते हुए लोकमंगल की उपासना करें।
(लेखक उप्र विधानसभा के पूर्व अध्यक्ष हैं)