वीर सावरकर : प्रत्यर्पण का वह पहला मुकदमा

गौरव अवस्थी, रायबरेली

Update: 2021-05-27 12:21 GMT
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भारत से भागकर ब्रिटेन सहित दुनिया के अन्य तमाम देशों में पनाह लेने वाले आर्थिक और नरसंहार (भोपाल गैस त्रासदी का मुख्य आरोपी एंडरसन) के आरोपियों के प्रत्यर्पण का शोर जब-कब टीवी चैनलों और अखबारों में सुनाई दे जाता है लेकिन प्रत्यर्पण की कोशिशें परवान चढ़ती नहीं दिखती. एक प्रत्यर्पण में सालों-साल लंबा वक्त गुजरता चला जाता है और ऐसे प्रत्यर्पण के मामले लोगों के मनोपटल से विस्मृत होते चले जाते हैं. इसमें कोई दो राय नहीं कि देशों के अपने वैध अवैध इंटरेस्ट होते हैं और कानूनी दांवपेच भी साथ ही राजनीतिक रुचियां भी.

ऐसे में 138वी जन्म जयंती पर स्वातंत्र्य वीर विनायक दामोदर सावरकर के अवैध प्रत्यर्पण का मामला जेहन में खुद-ब-खुद  कौधने लगता है. आज से 111 साल पहले 1910 मैं फ्रांस और ब्रिटेन के साम्राज्यवादी शासन तंत्र की दुरभिसंधि की वजह से पहले भारतीय के रूप में वीर सावरकर के अवैध प्रत्यर्पण का मामला घटित हुआ था. माना जाता है कि उस समय फ्रांस सरकार ने अगर अपनी धरती पर स्वाधीनता के इस अमर नायक के "राजनीतिक शरण के अधिकार" का मुद्दा अंतरराष्ट्रीय न्यायालय में मजबूती से उठाया होता तो भारतीय स्वाधीनता आंदोलन की दशा और दिशा ही कुछ दूसरी होती.

वीर सावरकर के व्यक्तित्व एवं कृतित्व के विशाल सागर में कम तवज्जो की वजह से यह तथ्य कभी उभर कर सामने नहीं आ पाया कि वीर सावरकर की हिंदुस्तानी सरकार के वारंट पर ब्रिटेन में गिरफ्तारी, फ्रांस की धरती पर फरारी और फिर गिरफ्तारी किसी भारतीय के प्रत्यर्पण का पहला मामला था. यह भी कि भारतीय स्वाधीनता आंदोलन के क्रम में विदेश (लंदन) में यह किसी भारतीय की पहली "राजनीतिक गिरफ्तारी" थी. फ्रांस में फरार होने की कोशिश में उनकी गिरफ्तारी उस समय दुनिया के कई देशों में "राजनीतिक शरण का अधिकार" पर एक नई बहस और विवाद का मुद्दा भी बनी थी. ब्रिटेन-जर्मनी-फ्रांस- इटली के कई समाचार पत्रों ने वीर सावरकर की इस गिरफ्तारी के विरोध में समाचार छापे और लेख लिखे. उस समय दुनिया के विधि विशेषज्ञों में भी यह गिरफ्तारी अच्छे खासे बहस का मुद्दा बनी थी. इसके लिए ब्रिटेन और फ्रांस की सरकारों को तमाम आलोचनाओं का भी सामना करना पड़ा था.  उनकी गिरफ्तारी के साथ ही भारतीय स्वाधीनता संग्राम का आंदोलन अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी सामने पाने में सफल रहा था

महाराष्ट्र के नासिक के भागुर गांव में 28 मई 1883 को पैदा हुए वीर सावरकर इस मत पर भरोसा रखने वाले थे कि पूरी उम्र कैद में बिताने से अच्छा है, छोटी उम्र जीकर भारत मां को ब्रिटिश हुकूमत से आजाद कराने में प्राणों का उत्सर्ग किया जाए. सावरकर ने ही  लंदन की लाइब्रेरी और संग्रहालय में दर्ज सच्चाई को ढूंढकर  1857 के ग़दर या सिपाही विद्रोह को "प्रथम स्वाधीनता संग्राम" के रूप में परिभाषित किया था. इसके लिए उन्होंने 18 महीने तक ढाई हजार विविध पत्रों, ग्रंथों और इतिहास को खंगाल कर यह साबित किया अंग्रेजों के हाथों मारे गए भारतीय लड़ाके (झांसी की रानी लक्ष्मीबाई, तात्या टोपे और नाना साहब) डाकू या लुटेरे नहीं बल्कि "शूरवीर" और "हुतात्मा" थे. उन्हीं की खोज ही की बदौलत आजाद भारत में 1857 के भारतीय शूरवीर और गोरो के बीच की लड़ाई को "प्रथम स्वाधीनता संग्राम" के रूप में प्रतिष्ठा प्राप्त हुई.

आज की नई पीढ़ी के हिंदुस्तानियों के लिए पहले भारतीय के रूप में वीर सावरकर के प्रत्यर्पण का इतिहास उनकी जन्म जयंती पर जानना बहुत जरूरी है. लंदन में अपनी स्वाधीनता संग्राम से जुड़ी गतिविधियों पर ब्रिटिश पुलिस द्वारा कार्रवाई की आशंका एवं अपनी निजी मजबूरियों (तन-मन-धन) के चलते जनवरी 1910 में पेरिस चले गए सावरकर को 13 मार्च  को  लंदन वापस लौटते समय विक्टोरिया स्टेशन पर  ब्रिटिश पुलिस ने हिंदुस्तान की ब्रितानी सरकार के विशेष वारंट पर गिरफ्तार कर कोर्ट में पेश किया. 29 जून 1910 को ब्रिटेन के गृह विभाग के राज्य सचिव विंस्टन चर्चिल ने उन्हें भारत भेजने के आदेश दिए. 

बंदी सावरकर को लेकर विशेष जलयान 1 जुलाई को भारत रवाना हुआ. 6 जुलाई को इंजन में कुछ खराबी आने  अगले दिन फ्रांस के मार्सेलिस बंदरगाह पर जलयान किनारे लगाया गया. 8 जुलाई की सुबह वीर सावरकर ने जलयान के शौचालय के पोर्ट होल से समुद्र में कूदकर भागने का प्रयास किया. सुरक्षा में तैनात की गई ब्रिटिश और हिंदुस्तानी सरकार की पुलिस टुकड़ी ने तैरकर समुद्र पार करते समय सावरकर पर गोली तक चलाई. बच-बचाकर सावरकर फ्रांस के बंदरगाह पर करीब 450 मीटर तक पहुंच गए लेकिन फ्रांस पुलिस के अधिकारी के सहयोग से उन्हें पकड़ कर फिर ब्रिटिश और हिंदुस्तानी पुलिस के हवाले कर दिया गया. 

अंतरराष्ट्रीय आलोचना पर फ्रांस की सरकार को अपनी धरती पर ब्रिटेन और हिंदुस्तान सरकार की पुलिस द्वारा गिरफ्तार कर भारत ले जाए जाने के इस मामले को हेग स्थित अंतरराष्ट्रीय न्यायालय ले जाना पड़ा. अवैध प्रत्यर्पण के मामले पर 25 अक्टूबर 1910 में फ्रांस और ब्रिटेन सरकार के बीच 6 सूत्री समझौता भी हुआ. इस मामले की सुनवाई के लिए दोनों देशों की आपसी सहमति से गठित 5 सदस्य पंचाट के अध्यक्ष बेल्जियम के पूर्व प्रधानमंत्री बर्नर्ट बनाए गए. अन्य चार सदस्य के रूप में नार्वे के भूतपूर्व मंत्री एवं ग्राहम, हालैंड के जानकीयर लोमन, इंग्लैंड के Erl of Desert और फ्रांस के एम लुइ रेनॉल्ट थे. रूस और जर्मनी जैसे शक्तिशाली देशोंं के इस न्यायाधिकरण में शामिल नहींं किया गया. इसी के चलते इस "पंचाट" को दुनिया में संदेह की नजर से देखा गया. अंतरराष्ट्रीय न्यायालय के फैसले से यह संदेह पुख्ता भी हुआ.

फ्रांस के तत्कालीन प्रधानमंत्री एम. ब्रायन की लचरनीति या दुरभिसंधि से अंतरराष्ट्रीय न्यायालय पंचाट ने इस टिप्पणी के साथ-" यद्यपि फ्रांस ने सावरकर को लौटाने में थोड़ी सी अनियमितता बरती तथापि फ्रांस का उस पर कोई कानूनी अधिकार नहीं था" सावरकर को गिरफ्तार कर भारत ले जाए जाने के मामले में ब्रिटेन के पक्ष में अपना फैसला सुनाया. इससे अंतरराष्ट्रीय न्यायालय की भी उस समय काफी आलोचना हुई. कहा तो यहां तक गया कि फ्रांस और ब्रिटेन की सरकारों तथा अंतरराष्ट्रीय न्यायालय के पंचाट ने मामले को तब तक सुनवाई के लिए लंबित रखा जब तक भारत में सावरकर को आजन्म कारावास की सजा सुना नहीं दी गई. 

अवैध प्रत्यर्पण के इस मामले में इंग्लैंड से कानून की डिग्री लेने वाले सावरकर को अपने ही केस में अपना पक्ष रखने से यह कहकर रोक दिया गया कि यह मामला दो देशों के बीच है न कि सावरकर और अदालत के बीच. इस केस का एक दुखद पहलू यह भी रहा कि विशेष जलयान पर सवार हिंदुस्तानी सरकार के पुलिस अधिकारियों ने पूरे घटनाक्रम से जुड़े तमाम सबूतों तथा तथ्यों के विश्लेषण के विवेचन से संबंधित कागजात या तो नष्ट कर दिए थे या गायब कर दिए. अंतरराष्ट्रीय न्यायालय में सुनवाई के दौरान इस मामले में जो एक मजबूत तथ्य सामने आया था वह यह कि ब्रिटिश और हिंदुस्तानी सरकार की पुलिस ने सावरकर के कूदकर भागने पर "चोर-चोर" चिल्ला कर फ्रांसीसी पुलिस के अधिकारियों को गुमराह करने का षड्यंत्र भी रचा. गिरफ्तार करने वाले फ्रांसीसी पुलिस अधिकारियों को अंत तक यह नहीं बताया गया कि यह क्रांतिकारी लेखक और राष्ट्रवादी भारतीय है और उन्हें राष्ट्रद्रोह के मामले में गिरफ्तार कर ले जाया जा रहा है. सावरकर के वकील ने इन तर्कों के आधार पर भी प्रत्यर्पण को अवैध साबित करने की पूरी कोशिश की थी लेकिन दोनों देशों के बीच दुरभिसंधि के चलते फैसला वैसा ही आया जैसा ब्रिटिश सरकार चाहती थी.

 "सावरकर पर थोपे गए चार अभियोग" नामक पुस्तक के लेखक हरीद्र श्रीवास्तव ने हेग अंतरराष्ट्रीय न्यायालय में प्रत्यर्पण के इस मामले का विस्तार से उल्लेख किया है. वह  लिखते हैं-"इस अवैध प्रत्यर्पण के मामले में विश्व भर की न्याय व्यवस्था को झटका लगा था. कानूनविदों ने प्रतिक्रिया जाहिर करते हुए कटु आलोचना की कि अंतररष्ट्रीय कानून की हत्या की गई है. अंतरराष्ट्रीय कानून में शरणागत के अधिकार को लेकर जो नीति नियम निर्धारित किए गए हैं, यह निर्णय उन पर कुठाराघात है. उन नियमों का मजाक उड़ाया गया है. यह फैसला एकदम हास्यास्पद है और दिमागी खोखलेपन का उदाहरण है". 

"सावरकर के राजनीतिक विचार" विषय पर फिरोज गांधी कॉलेज रायबरेली के राजनीति विज्ञान के पूर्व विभागाध्यक्ष डॉ राम बहादुर वर्मा के निर्देशन में वर्ष 2002 में छात्र जावेद अख्तर के शोध पत्र के अनुसार, सावरकर के अवैध प्रत्यर्पण के मामले में फ्रांस की धरती पर की गई गैर कानूनी गिरफ्तारी के मामले में फ्रांस सरकार द्वारा अपनाए गए लचर राजनीतिक रवैए को देखकर उस समय फ्रांस के कई कद्दावर नेता भड़क उठे थे. इस कारण से देश में उपजे गुस्से और असंतोष के और ज्यादा भड़क जाने एवं 21 अन्य कारणो से फ्रांस के तत्कालीन प्रधानमंत्री एम ब्रायन को इस्तीफा भी देना पड़ गया था. 

विवादों और विरोधाभास के बीच सावरकर

वीर सावरकर भारतीय स्वाधीनता संग्राम के एक ऐसे योद्धा थे जिनका विवादों से सदैव नाता रहा. फ्रांस की धरती पर गिरफ्तारी और अंडमान की जेल से नाटकीय रिहाई दोनों ही खूब विवादित रही और आज तक है. रिहाई के लिए ब्रिटिश हुकूमत को लिखे गए पत्रों को उदारवादी "माफीनामा" कहते हैं और समर्थक चतुराई. इन पत्रों की "भाषा" को लेकर सावरकर समर्थक और विरोधी अपने-अपने अर्थ पहले भी निकालते रहे हैं और आज भी निकाल रहे हैं. सावरकर पर यह सवाल भी उठाया जाता है कि उनसे प्रेरित होकर ही उनकी किताब "1857  का प्रथम स्वतंत्र समर" प्रकाशित करवाने वाले भगत सिंह फांसी का फंदा चूम लेते हैं और सावरकर हिंदुस्तान की ब्रितानी हुकूमत को पत्र लिखकर रिहाई की गुहार लगाते हैं. सावरकर के हिस्से में एक विवाद ब्रिटिश हुकूमत से पेंशन पाने का भी है. जेल से छूटने के बाद अंग्रेज सरकार उन्हें पेंशन बांध देती है और आजाद भारत की अपनी ही सरकार कई वर्षों और तमाम प्रयासों के बाद उन्हें जीवन यापन के लिए पेंशन मंजूर करती है. यह विरोधाभास ही है कि 1905 में पुणे में विदेशी वस्त्रों की होली जलाने की आलोचना करने वाले उदारवादी 1921 में महात्मा गांधी के आह्वान पर विदेशी वस्त्रों की होली जलाने से नहीं शर्माते. जो जवाहरलाल नेहरू जेल से सावरकर की रिहाई का स्वागत करते हैं, उन्हीं पर गांधी की हत्या के अभियोग में सावरकर को जानबूझकर फंसाने का इल्जाम भी लगता है. यह अलग बात है कि साल भर की सुनवाई के बाद अदालत उन्हें "बाइज्जत" बरी कर देती है. आजाद भारत में कांग्रेस सरकार सावरकर की ब्रिटिश हुकूमत द्वारा जप्त की गई संपत्ति वापस लौटाने में गुरेज करती है. लंदन के इंडिया हाउस में 1960 में प्रथम स्वाधीनता आंदोलन की स्वामी जयंती मनाने वाले सावरकर को आजाद भारत में प्रथम स्वाधीनता संग्राम की शताब्दी वर्ष समारोह में आहूत नहीं किया जाता  पंडित नेहरू की उत्तराधिकारी इंदिरा गांधी स्वर्ण जयंती पर सावरकर पर डाक टिकट जारी करती है लेकिन सावरकर को भारत रत्न देने के प्रधानमंत्री के रूप में अटल बिहारी बाजपेई के प्रस्ताव को कांग्रेसी मानसिकता के राष्ट्रपति केआर नारायणन नामंजूर कर देते हैं. एक विवाद संसद में वीर सावरकर की प्रतिमा स्थापना का भी सामने आया ही था.

विवादों और विरोधाभासो कि इन कथाओं के बीच वीर सावरकर से जुड़े यह मामले निर्विवादित हैं-

1.विदेश की धरती पर गिरफ्तार होने वाले पहले भारतीय

2. भारतीय के रूप में पहले प्रत्यर्पित बंदी

3. दो-दो आजन्म कारावास की सजा सुनने वाले पहले भारतीय

4. 27 वर्ष का लंबा कारावास (कालापानी, जेल और स्थानबद्धता रत्नागिरी मिलाकर) झेलने वाले संभवत प्रथम भारतीय


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