निमाड़ की लोकसंस्कृति में जल संरक्षण की चेतना
डॉ. सुमन चौरे, लोक संस्कृतिविद्, भोपाल
पड़ोसी नीरज बड़ी खुशी से आया, दूर से ही प्रणाम कर बोला- “दादी, दीपक पास हो गया, थर्ड (तीसरी) में चला गया।” मैंने पूछा, “परीक्षा देने गया था या ऑनलाइन हुई?” वह बोला, “कहाँ दादी, कोरोना के कारण सब ऑनलाइन ही है।” मैंने कहा, “अरे हाँ, परीक्षा का तो तब पता चलता था, जब काके परीक्षा देने जाता था।” दीपक बोला, “दादी क्या कहा।” मैंने कहा, “नहीं-नहीं, तुमसे कुछ नहीं कहा।” और मैं परीक्षा, काके और परीक्षा-फल में ही खो गई।
हमारे घर एक पंजाबी किरायेदार ऊपर के माले पर रहता था। हम उन्हें चाचा कहते थे। चाचा का एक होटल था और उनके पास एक खटर-खटर स्कूटर था। उनके परिवार में एक बेटा काके और एक चाई थे। पूरा मोहल्ला, चाचा, चाई और काके को बहुत पसंद करता था। हमारे मोहल्ले में वह अकेला पंजाबी परिवार था। पर बात ऐसी नहीं, काके ऐसा याद आ गया, कि जिस दिन उसकी परीक्षा होती था, उस दिन पूरे मोहल्ले को पता चल जाता था, कि आज काके का पर्चा है। काके जब सीढ़ियाँ उतर कर आता था, उसके पहले चाई अपने सिर को ढँक कर एक घड़े पर दूसरा घड़ा जल भरकर खड़ी रहती थी। काके जब परीक्षा के लिए घर की सीढ़ी से उतरता तो सामने खड़ी चाई के सिर पर रखे घड़े को प्रणाम करता था और घड़े में कभी पीली इकन्नी तो कभी चौकौन दुवन्नी डालता था। चाई वह पैसे कन्याओं को दे देती थी। काके का पेपर कैसा गया, उसके आने पर पता चल जाता था, वह कभी तो परीक्षा देकर लौटने पर खुश होकर सुबह का बचा बादाम का हलवा खा लेता और कभी परीक्षा से आकर जब जोर-जोर से बर्तन फेंकता और चाई को चिल्ला चिल्ला कर कहता, “चाई आज तुमने तुमने पूरा घड़ा नहीं भरा था पानी का, लगता है तुमने घड़ा खाली रखा, तभी तो मेरे प्रश्न छूट गए। मैं तो पंजाब का बन्दा हूँ, चाई अगर मैं फ़ेल हुआ तो तुम जिम्मेदार, तुमने ही पानी के घड़े ठीक से नहीं भरे, मैं तो पानी का बंदा हूँ। इंसान का पानी ही तो सब कुछ है।” उन दोनों माँ-बेटे के बीच पानी के भरे घड़ों के लेकर जोर-जोर पर संवाद चलता रहता था। काके और चाई के संवाद परीक्षा फल आने से पहले ही काके का परीक्षा-फल बता देते थे।
पानी के प्रति इतनी श्रद्धा-आस्था, शगुन-अपशगुन के विचार और पानी से जुड़े सफलता-असफलता के समीकरण, ये सब अन्धविश्वास हैं या दृढ़विश्वास है, तब यह माजरा हमको समझ में नहीं आता था। किन्तु इतना अवश्य देखते थे कि जब भी यात्रा पर निकलें या शुभ कार्य जाओ, तो पणिहारी का भरा बेड़ा सामने से आते मिले, तो रुककर उसमें पैसे ज़रूर डालते थे और पणिहारी के चरण स्पर्श करते थे। पानी के प्रति हमारी यह श्रद्धा और आस्था ही पानी के प्रति हमारा पूज्य सुभाव प्रकट करता है।
जब हम छोटे थे, तब तो यह बेड़े की स्थिति सहज ही बन जाया करती थी, क्योंकि तब कुआँ-बावड़ी-जलाशय से सभी लोग पानी घड़े में भरकर सिर पर ही लाते थे। एक बार में अधिक-से-अधिक पानी भरकर ला सकें, इसलिए घड़े पर घड़ा रखकर लाने की एक तरह से सबकी आदत ही बन गई थी। पानी से भरे बड़े घड़े या कलश के ऊपर उससे थोड़ा छोटा घड़ा या कलश पानी भरकर रखा जाता था। इसमें कई बार अधिक घड़े भी एक के ऊपर एक रखे जाते थे। जल से भरे हुए घड़े या घट या कलश की एक के ऊपर एक रखी हुई जोड़ी को ‘बेड़ा’ कहते हैं। बेड़ों को शुभ माना जाता है। किसी भी स्थान पर कोई मंगल कार्य होता है, तब बेड़ा भरकर रखा जाता था। यह जल के प्रति हमारा सम्मान भाव रहा है।
मंगल कार्य के शुभारम्भ में जब जिन वस्तुओं का पूजन, शास्त्रोक्त रीति या लोकोक्त रीति से किया जाता है, तब जल घट यानी कलश की स्थापना कर वरुण देवता का आवाहन किया जाता है। घट स्थापना के उपरान्त ही जिस भी पूजन या अनुष्ठान का आयोजन किया गया है, उसका विधान प्रारम्भ किया जाता है।
‘ॐ अपवित्र: पवित्रो वा सर्वावस्थां गतोपि वा...’ श्लोक के उच्चारण के साथ पूजन या अनुष्ठानकर्त्ता पर और पूजन स्थल को पवित्र करने के लिए जल छिड़का जाता है। तामण यानी पूजा के लिए उपयोग की जाने वाली छोटी-सी ताम्र थाली में जल भरकर हाथ से छिड़का जाता है। अनुष्ठानकर्त्ता स्वयं जल से आचमन करता है। जल-ग्रहण करने की पद्धति यही है, कि दाहिने हाथ की हथेली के नीचे बायीं हथेली रखकर दाहिनी हथेली में जल लेकर उसे ग्रहण कर, उस जल को आँखों और सिर, और हृदय पर स्पर्श कराया जाता है। इस पद्धति में बूँद-बूँद के प्रति उपकृत होने का भाव है।
निमाड़ की लोक संस्कृति और परम्पराओं में बेड़े से ही सभी शुभ-मंगल कार्य शुरू होते हैं। मंगल कार्य के प्रारम्भ में घर के द्वार के बाहर ठीक चौखट के निकट दोनों ओर बेड़े रखे जाते हैं।
संस्कारों और अनुष्ठानों की प्रक्रिया में जल पात्र, जल कलश और बेड़े का अपना वैशिष्ट्य रहता है। शिशु को जन्म के बाद जब सौड़ उत्थान होता है, शौच उठती है, तब घर को जल से पवित्र किया जाता है। इसके बाद नर्मदा जल या गंगा जल छिड़का जाता है। जन्म से ग्यारहवें दिन जल पूजन या जलवाय का बड़ा महोत्सव मनाया जाता है। शिशु के नामकरण के दिन जलपूजन किया जाता है। प्रसूता अपने शिशु को गोद में लेकर जलदेवी की पूजा करती है। यहाँ जलदेवी का परकोटा बनाया जाता है। गीली हल्दी से जलदेवी की प्रतिमाएँ बनाते हैं और परकोटा के बाहर माटी के छोटे-छोटे घड़े जिन्हें करवा कहते हैं, एक के ऊपर एक रखे जाते हैं। प्रसूता कुएँ का पूजन करती है और वहीं से सिर पर बेड़ा रखकर घर में प्रवेश करती है। तब घर की बुआ, बहन, बेटी प्रसूता के सिर पर से बेड़ा उतार कर उससे उसका नेग माँगती हैं और फिर शिशु को उसकी माँ (प्रसूता) की गोद में देती हैं। पूजन के अवसर पर जलदेवी के गीत गाये जाते हैं। इस अवसर का एक गीत –
जळ देवी माता परमेशरी ओS,
थाराS मढ़S मS दिवलो जळावS ते कूणS होS
दिवलो जळावS बाळा की माऊली होS
मनS का मनोरथS पूरव्या होS देवीS
दीवलो बळतS जळSदेवी नS देख्योSव
घड़िला छळकतS जळS देवीS नS देख्या होस
भावार्थ: हे परमेश्वरी जलदेवी माता, तेरे द्वार पर दीपक कौन ने जलाया है? जलदेवी माता कहती है, कि मैंने जिनके मनोरथ पूरे किए, जिनकी कामनाएँ मैंने पूरी की हैं, जिनको मैंने संतान दी है, उस शिशु की माता ने मेरे द्वार पर जगमग दीप जलाए हैं। उन्होंने जल से भरे घड़े रखे हैं। मैं प्रसन्न होकर झप-झप दीपक और जल से छलकते घड़े देख कर प्रसन्न हो रही हूँ।
विवाह संस्कार की लोक परम्पराओं में बेड़े का विशेष मंगलकारी स्थान है। विवाह के लिए जब बरात घर से निकलती है, तो दूल्हे के सम्मुख कुआरी कन्या अपने सिर पर बेड़ा रखकर खड़ी होती है। दूल्हा उस बेड़े में नेग के रूप में पैसे डालता है, फिर आगे बढ़ता है। इसके बाद जब बरात दुलहन के द्वार पर पहुँचती है, तब वधू परिवार की एक कन्या बेड़ा लेकर दूल्हे के सम्मुख द्वार पर खड़ी होती है। तब इसे ‘वरबेड़ा’ कहा जाता है। दूल्हा वरबेड़ा में नेग डालकर मण्डप में प्रवेश करता है। विवाह पश्चात् बहू को लेकर बारात घर पहुँचती है, तब घर के द्वार पर बहन और बेटियाँ सिर पर बेड़ा रखकर आरती की थाली के साथ दूल्हा-दुलहन का स्वागत करती हैं। ये बहन और बेटियाँ नई बहू का द्वार रोकती हैं। फिर आरती और बेड़े में नेग डालकर ही नवदम्पत्ति घर में प्रवेश कर पाते हैं।
पाणिग्रहण संस्कार को निमाड़ के लोकाचार में ‘पाणी छोड़ना’ या ‘कन्यादान’ भी कहते हैं। पण्डित पाणिग्रहण के पूर्व वधू के पिता के हाथ में जल देकर संकल्प करवाते हैं, कि हम कन्या का दान कर रहे हैं। इस अवसर का एक गीत-
कन्या का बाबुल संकल्प माँड्योS
देS तेS मानवई कन्या दानS जीS
घर माS सी हो उठी माडलीS बोल्याS
देवोS तेS पियुजी हथ्थी भी देवो
घोड़ाS देवोS देवोS तेS रत्नS जड़ावS जीS
क्योंS माँड्यो कन्या को दानS जीS
हमS नS तेS गोरीधन संकल्प छोड़्यो
तेवाँ ते कन्याS को दानS जीस
भावार्थ: कन्या के पिता ने हाथ में जल लेकर संकल्प छोड़ा है, – “हे कुँवर आपको अपनी कन्या दान देंगे।” यह बात जब घर में बैठी माता को मालूम हुई तो उन्होंने करुण भाव से अपने पति से कहा- “हे स्वामी, आपने यह कैसा निश्चय किया है । आप घर के हाथी, घोड़ा, मेरे रत्नजड़ित आभूषण दे देते, पर कन्या क्यों दी। तब वधू के पिता कहते हैं- “हमने तो जल का संकल्प छोड़ दिया है, अब हम तो कन्यादान करेंगे ही। जल का संकल्प लेने के बाद हम झूठे नहीं पड़ना चाहते।” लोकाचार में यह जल के प्रति सम्मान का और जल के माध्यम से वचनपूर्ति का साक्ष्य है। जल छोड़ने का अर्थ होता है, जल को साक्षी बनाना।
मण्डप में पाणिग्रहण के लिए तांबे की गंगाल में जल भरा जाता है। पण्डितजी शास्त्रोक्त विधि से गंगाल के जल में सप्त सिंधुओं का आवाहन करते हैं। आमने-सामन दुलहन और दूल्हा को बैठाया जाता है। शुभ घड़ी के अनुसार मंत्रोच्चार के मध्य दुलहन के माता-पिता जलभरी गंगाल में अपनी बेटी का हाथ दूल्हे के हाथ में सौंप देते हैं। साथ ही गंगाल में से ही जल ले-लेकर वर-वधू के मिले हुए हाथों पर डालते हैं। वधू के पिता कहते हैं, “जल की साक्षी में, सप्त सिंधुओं की साक्षी में मैं अपनी बेटी का हाथ वर को सौंपता हूँ।” यहाँ जल प्रत्यक्षसाक्षी रहता है। जल प्राणवान् है।
केवल विवाह संस्कार में ही नहीं, अपितु, अनेकों परम्पराओं को पूरा करने के लिए जल की साक्षी को महत्त्व दिया गया है। संकल्प शब्द दृश्यानुभूत करवाता है कि यजमान बायीँ हथेली के ऊपर दाहिनी हथेली रखकर, दाहिनी हथेली में जल लेकर या फिर जल में पुष्प, अक्षत और द्रव्य रखकर किसी कामनापूर्ति के निमित्त जल को साक्षी मानकर हथेली में लिए जल और सामग्री को छोड़ता है। जल का संकल्प कई कार्यों में पूरक माना जाता है। मंत्र अनुष्ठान के अवसर पर विनियोग के अवसर पर भी जल साक्षी रहता है।
प्रकृति के विभिन्न तत्त्वों के दृष्टिगोचर होने और सरलता से उपलब्ध होने के बाद भी जल की साक्षी में कार्य प्रारम्भ करना, जल के प्रति अगाध श्रद्धा, आस्था और दृढ़विश्वास दर्शाता है कि कार्य निर्विघ्न संपन्न होगा और सभी के लिए मंगलदायी रहेगा।
अनेक विवाह-गीतों में जल स्रोतों को सम्मानजनक स्थान दिया गया है। पवित्र नदियों सरस्वती और गंगा की उपमा भी परिवारजनों को दी गई है। इसी सन्दर्भ का मण्डप से संबंधित एक गीत –
म्हारो हरियाS मण्डपS माँयS
झड़ाको लाग्यो रेS दुई नयणा को
म्हारी सासु सरसती नद्दी वयS
म्हारी माँयS गंगा केरो नीरS झड़ाको लाग्यो रेS
म्हारा ससरा जीS पारस पीपळईS
म्हारा बापS अख्खई वड़ झड़ाको लाग्यो
भावार्थ: मेरे आँगन में हरा-भरा मण्डप बना है, जिसकी सुन्दरता का वर्णन नहीं किया जा सकता। मेरे दोनों नयनों से प्रेमाश्रुओं की धार लग गई है। मुझे मेरे ससुराल और पीयर दोनों परिवार अपनी आँखो जैसे प्रिय लग रहे हैं। मेरी सास सरस्वती नदी जैसे पवित्र मन की है और मेरी माता गंगा जल जैसे निर्मल है। ससुरजी पारस पीपल जैसे छायादार एवं सबके लिए सुखद हैं, पिताजी अक्षय वट जैसे सबको लाभान्वित करते हैं।
बेड़ा से लेकर सप्त सिन्धु से भरे गंगाल और मण्डप में संपादित होने वाली विविध परम्पराओं और गीतों के माध्यम से कामना होती है कि नवदम्पत्ति का वैवाहिक जीवन जल जैसा सरल-तरल, पवित्र और सुख से लबालब रहे। विवाह संस्कार में जल को आदरपूर्ण स्थान दिया जाना नवदम्पत्ति के आपसी संबन्धों और दोनों पक्षों के कुटुम्बों के व्यवहार में पारदर्शिता, निष्पक्षता और स्नेहपूर्ण आर्द्रता बनाए रखने का भी द्योतक है।
जल-धार, जल-स्रोत, जल-देवी, जल-माता का स्वरूप हमारी सप्त सिंधु हैं। गंगा, यमुना, सरस्वती, गोमती, कावेरी, नर्मदा के कई गीत विभिन्न अवसरों पर निमाड़ में बड़ी श्रद्धा से गाये जाते हैं। कार्तिक मास स्नान और दान का मास कहा जाता है। कार्तिक मास में सूर्योदय से पूर्व स्नान करके जल में दीपदान करने की महिमा बतायी गई है। कार्तिक स्नान हो तो कथाएँ कृष्ण, कृष्ण की पटरानियों की कही जाती हैं और गीत यमुना के गाये जाते हैं। इसी सन्दर्भ का एक गीत-
जमुनाS तू बड़ भागेणS होS
थाराS मंS न्हाया सिरी भगवानS
रूप थारो श्याम तेS काळोS
काळा सिरी भगवानS
थाराS मंS न्हाया सिरी भगवानS
साँवरा का रंग मंS रंगी
जमुना तू काई ओS नादानS
थाराS मंS न्हाया सिरी भगवानS
प्रेमरंग मंS रंगी तूS जमुनाS
श्यामS तुखS मनS भाया
थाराS मंS न्हाया सिरी भगवानS
जसS होS जमुनाS नावS श्याम कोS
तसS डुबकी लेवां थारी
थाराS मंS न्हाया सिरी भगवानS
राधा न्हावS रुक्मणीS न्हावS
न्हावS तेS राई सतभामा नारीS
जळ मंS न्हावS कळयुग की नारीS
थाराS मंS न्हाया सिरी भगवानS
जमुनाS तूS बड़ भागेणS
थाराS मंS न्हाया सिरी भगवानस
भावार्थ: यमुना तू बड़ी भाग्यवान् है, तेरे जल में श्रीभगवान् ने स्नान किया। तेरा जल काला क्यों है, लगता है साँवरा नहाया तो वह श्याम रंग तूने ग्रहण कर लिया। हे यमुना, क्या तू नादान है, कि श्याम वर्ण हो गई। नहीं, तुझे तो श्याम का प्रेमवर्ण पसन्द आ गया और तू श्याम-मय हो गई। जैसे कृष्ण श्याम वैसे ही तू श्याम है, इसीलिए तेरे जल में राधा, रुकमणी, राई, सत्यभामा डुबकी लगाती हैं और कलियुग में भी आस्था से तेरे जल में डुबकी लगाकर कृष्ण धाम की गति पाती हैं। यमुना तू बड़ी भाग्यवान् है कि तेरे जल में श्याम ने स्नान किया।
कृष्ण और उनकी पटरानियों के माध्यम से यमुना की महिमा इस गीत में लोक गाता है। गीत का भाव है कि कृष्ण के स्नान से यमुना कृष्णमय हो गई हैं और हमारा कर्तव्य बना जाता है कि कृष्णमय यमुना की शुद्धता बनाएँ रखें।
अवसरों के अनुरूप कलश यात्रा की भी प्रथा है। जल से भरे कलश में आम्रपत्र, लाल कनेर, अकाव पुष्प रखकर पूजन के समय अर्घ्य देने की परम्परा भी है। जल से भरे कलश में आम्रपत्र के ऊपर श्रीफल (नारियल) रख कर भी कलश या घट स्थापना की जाती है। जो कि पूजन के संपन्न होने तक स्थापित रहता है। उस कलश में समस्त पवित्र एवं पूज्य जल स्रोतों का आवाहन भी किया जाता है जैसे सिन्धु और सागर सहित समस्त पवित्र नदियों एवं सरोवरों का।
भोजन बनाने के लिए जल भरने के लिए शुचिता का पूर्ण ध्यान रखा जाता है। तो भोजन ग्रहण के पूर्व भोजन थाली के चारों ओर जल फिराया जाता है, हथेली में जल कलेकर आचमन करने के बाद भोजन ग्रहण किया जाता है। एक लोकरीति यह भी है कि ‘पैलो जल फिरी अन्न’।
व्यक्ति का अन्तिम समय निकट प्रतीत होने पर, उसके मुँह में तुलसीपत्र के साथ गंगा या नर्मदा जल डाला जाता है। प्राण निकलने के बाद जीव को जल देने की क्रिया होती है। जिसमें पीपल की जड़ में जल दिया जाता है। मिट्टी के पात्र में जलभर कर रखा जाता है, जो पंख-पखेरुओं, कीट-पतंगों आदि को संतृप्त करे। लोकमान्यता है कि इनके द्वारा ग्रहण किया गया जल परलोक में उस व्यक्ति की आत्मा को संतृप्त करता है।
जल के माध्यम से ईश्वर के प्रति भक्ति को भी समझाया गया है। इस सन्दर्भ का एक गीत-
कसी भगती कराँS म्हारा जीवS रे
सब को आधार रहे यो नीरS रेS
झीरS बिनS कुओं नS
झरS बिनS वावड़ी
धाराS बिनS नद्दी कसी वह्य रेS
सबS को आधारS रहे यो नीरS रेS
जणS बिनS कुंभS नS
तळS बिनS झारीS
जीवS बिन कायS नीS रह्य रेS
सब को आधार रहे यो नीरS रेS
कसी भकती कराँ म्हारा जीवS रेS
सबS को आधारS रहे यो नीरS रेस
भावार्थ: हे ईश्वर, हम तुम्हारी भक्ति कैसे करें। जीवन का आधार तो नीर है। जल स्रोत के बिना कुआँ-बावड़ी किसी काम के नहीं हैं। बिना धारा के नदी कैसे बह सकती है। बिना जल के धार नहीं बन सकती है। सब कुछ पानी पर निर्भर है। बिना जल के कुम्भ किसी काम का नहीं, वैसे ही बिना जल की झारी किस काम की। ऐसे ही बिना जीव के काया भी किसी काम की नहीं है। बिना जल के भक्ति कैसे करें। सबका आधार जल है।
नर्मदा, एकमात्र ऐसी पवित्र नदी है जिसकी परिक्रमा की जाती है। नर्मदा क्षेत्र का वासी लोक यदि लोकगीतों में गंगा, यमुना, सरस्वती, गोमती आदि की महिमा गाता है, तो यह जल के प्रति साक्षात् आदर भाव ही है। लोक क्षेत्रीयता की संकुचित भावना से ग्रसित नहीं है, वह उदार है और हर जल स्रोत के महत्त्व को सम्मान देता है।
लोक वर्षाजल का भी आनन्दोत्सव मनाता है। बादलों के देखकर मयूर नाच उठता है तो बूँदों के स्पर्श से नंग-धड़ंग बच्चे भी नाचते और उछलते हुए गा उठते हैं-
पाणी बाबा आवरेS
काकड़ी भुट्टा लावरेS
अर्थात् पानी बाबा आप कृपाकर बरसो, तभी तो हमारे खेतों में काकड़ी और भुट्टे की फसल आयगी।
लोक को मालूम है कि पानी किससे माँगने से मिलता है। निमाड़ में पानी माँगने का एक त्योहार मनाया जाता है ज्येष्ठ मास की अमावस्या को। इसे ‘डोडबळई अम्मोस’ कहते हैं। ज्येष्ठ अमावस तक गर्मी का भयंकर प्रकोप हो जाता है। ‘डोडबळई अम्मोस’ के दिन बालक अपने ऊपर खाकरा (पलाश) और लीम (नीम) के पत्ते बाँधकर डेडरा (मेंढक) बनते हैं और घर-घर जाकर पानी माँगते हैं। वहीं छोटी बालिकाएँ मेंढक को वर्षा देवी के स्वरूप में पूजती हैं। मेंढक को निमाड़ी में डेडर कहते हैं। बालिकाएँ प्रार्थना करती हैं “हे डेडर माता पानी दे।” वे कवेलू पर गोबर से पाँच डेडर माता बनाती हैं। फिर कवेलू को सिर पर रखकर घर-घर जाकर पानी और अनाज माँगती हैं। डोडबळई अम्मोस के अवसर के एक गीत की कुछ कड़ियाँ –
डेडरS माता पाणीS दS ओS
पाणीS को पड़ी गयो सेराS
भिंजई गयो पडोळोS
काळा खेतS मंS पीपळईS
रसS लगी धारइ
साळ सुखेलS कोदा फुकेळS
दS दो माँय टुळेक दाणास
भावार्थ : हे जल की देवी डेडर माता, पानी की कमी हो गई है। धूप के कारण हमारे खेत जल रहे हैं। साल, कोदों और कुटकी ताप से जल जायँगी, तू हमें पानी दे। हे डेडर माता, खूब पानी दे, हमारे वस्त्र भींज जायँ और खेत का पीपल हरा-भरा हो जाय। हे पटलेन माय (गाँव के पटेल की पत्नी), तू हमको पानी और टुलेक (अनाज मापने का एक बर्तन) भरकर अनाज दे।
बालक गाते हैं - हमारा शरीर घाम से जल रहा है। आप पानी दो - डोडबळई अम्मोस पर वे गाते हैं –
धक्को दS पाणी दS
सूपड़ा मंS धाणी, थारी बेटी राणी
येलाS पS खीरो, थारो बेटो हीरो
दS माँय दS पाणीS दS, दS माँय दS टुळेक दाणाS
भावार्थ : घर-घर पानी माँगने जाने वाले बच्चे कहते हैं, “हे पटलेन माय पानी दे। तेरी बेटी झूले झूल रही है, वह पटरानी है। हे माय तेरा बेटा हीरा रत्न है। तू हमको थोड़ा अनाज और पानी दे। गृहस्वामी इन बच्चों पर पानी डालते हैं, तो ये डेडर जैसे उछलते हैं। फिर इन्हें टुळेक भरकर अनाज दिया जाता है।
पानी तो जीव का प्राण है, पर किसान के लिए तो आजीविका का आधार भी है। जब वर्षा शुरु होती है, तो किसान की पत्नी आनन्दित हो नाच उठती है, और अपने पति से कहती है - “हे स्वामी, खेत की माटी नरम हो गई होगी। अब आप काँटों की बाघुड़ (रक्षा मेड़) लगा दो, ताकि हम रसीले गन्नों की खेती करेंगे।” ऐसा कहते हुए वह गा कर नाच उठती है –
पाणी का पड़ी गया छाटाS
स्वामी तुमS गाड़ी आओ काटाS
काटा गाड़ी नंS स्वामी घरS खS आयाS
बैरो नS राँधी लिया घाटाS
स्वामी तुमS गाड़ी आओ काटाS
घाटो खाई नS स्वामी जत्राँ मंS गयाS
जत्राँ सी लाया दुई नाट्याS
स्वामी तुमS गाड़ी आओ काटाS
नाट्या लई नS स्वामी खेतS मंS गयाS
खेत मंS वायाS बाड़S साटाS
स्वामी तुमS गाड़ी आओ काटाS
साटा लई नS स्वामी हाटS मंS गयाS
बैरो का लाया हारS पाट्याS
हारS पाट्या पेरी बैरो अंगणा मंS नाचीS
जीवन मंS आननS का छाटाS
स्वामी तुमS गाड़ी आओ काटास
भावार्थ : किसान की पत्नी अपने पति से कहती है, पानी की बूँदें बरस गई हैं। हे स्वामी, तुम काँटों को गाड़कर खेत की मेड़ बना दो। किसान घर आये, तो पत्नी ने जुवार की घाटा (दलिया) राँध लिया था। घाटा खाने के बाद किसान जत्रा (मेला) में गए। वहाँ से दो नाट्या (युवा बैल) लाए। बैलों को वे खेत में ले गए और गन्ने की बाड़ लगाई। खूब रसीला गन्ना पैदा हुआ। हाट में गन्ना बेचकर किसान ने अपनी पत्नी के लिए गले का एक हार और हाथ के कंगन खरीदे। इसे पहन कर उसकी पत्नी आनन्दित होकर आँगन में नाचने लगी। किसान के जीवन में आनन्द रस की बौछार होने लगी।
वर्षाजल का आनन्द लूटना भी लोक जानता है। वर्षाजल से किसान का परिवार ही खुश नहीं है, अपितु, सावन के सेरों से हर्षित होती युवतियों के गीतों की स्वर लहरियाँ निमाड़ में गूँज उठती हैं-
सरावणऽ सेरा वरसी रह्याऽ
नऽ हिंडोळा बँध्यो अमुड़ा की डालऽ
सरऽ सरऽ सरऽ सरऽ वरसऽ बदरी
फरऽ फरऽ उड़ऽ म्हारी चुन्दरी
म्हारा पीया होऽ, हिडोळा झुलसाँऽ
भावार्थ : श्रावण झिरमिर-झिरमिर बरस रहा है। आम की डाल पर झूले बंध गए हैं। हे पिया, मैं हिडोळा झूलूँगी, मेरी चुनरी फर-फर उड़ रही है। उस पर सर-सर पानी की बूँदें बदली गिरा रही है।
लोक को पता है कि कितना वर्षा जल उन्हें चाहिए। उनको इतना पानी चाहिए, कि धरती की ऊष्णता शांत हो जाय और जल भंडारण होने लगे। कहावत है-
मघा को वरसणू
नऽ माँयऽ को परसणूऽ
अर्थात्, मघा नक्षत्र का बरसा पानी धरती को इतना तृप्त करता है, जितना कि माँ द्वारा ममता से परोसा गया भोजन। वर्षा से नदी-नाले, जलाशय-बावड़ी-कुआँ आदि सभी के स्रोत पुनर्जीवित हो उठते हैं, तृप्त हो जाते हैं।
त्योहारों में जल का उल्लेख हो, तो होली को कैसे भुला सकते हैं। लोक होली खेलने के लिए नर्मदा और महादेव, ‘ओम्कार महाराज’ (निमाड़ में स्थित ज्योतिर्लिंग ओंकारेश्वर) को अवश्य बुलाते हैं, उनका स्मरण करते हैं। वे नर्मदा को भी रंगमय कर देते हैं।
नरमदा रंग सु भरी
होळई खेलो नS सिरी ओंकार
भावार्थ : हे ओंकार स्वामी, नर्मदा रंग से रंगा उठी है, आप उसी रंगीले जल से होली खेलिए।
जलाशयों, नदियों, कुओं - बावड़ियों आदि जल स्रोतों को भी लोकगीतों में उदारता से स्थान दिया गया है। गणगौर से लेकर विविध संस्कारों के गीत हों या तीर्थ यात्रा से लेकर ऋतुओं और मासों के गीत हों, सबने जल की महिमा को पोषित किया गया है।
लोक परम्पराएँ और लोकगीत जल स्रोतों की महिमा और श्रद्धा की बौछारों से जीवन के हर पक्ष को आर्द्र करते हुए हमारे कर्तव्य बोध को जाग्रत करते हैं। यह कर्तव्य बोध है, विभिन्न जल स्रोतों के संरक्षण, पोषण और उनकी शुद्धता को प्राकृतिक स्वरूप में बनाए रखने का। ‘जल ही जीवन है’, जैसी संकल्पनाओं की मात्र चर्चाएँ न करते हुए लोक ने नवजात शिशु की जलवाय परम्परा से लेकर विवाह संस्कार तक, फिर घर के द्वार से लेकर तीर्थयात्राओं तक और विभिन्न व्रत-त्योहारों के माध्यम से जल की महत्ता के प्रति हमारी आस्था और जल स्रोतों के मूल स्वरूप में संरक्षण के प्रति हमारी कर्त्तव्यपरायणता को एकात्म तथा जाग्रत कर दिया है।