गावो विश्वस्य मातरः: भारत को ‘कैंसर’ मुक्त बनाना है, तो हमें ‘गौसेवी’ बनना पड़ेगा, स्‍वदेश का विशेष साक्षात्‍कार…

Update: 2025-01-13 11:14 GMT

‘मधुकर चतुर्वेदी’, आगरा। भारतीय संस्कृति की सच्ची रीढ़ गौ-संस्कृति है। जबसे सृष्टि की रचना हुई, तभी से गौ इतिहास का भी प्रारम्भ होता है। भारतीय संस्कृति की दृष्टि से ‘गौ’ का महत्व ‘गायत्री और गंगा’ से भी बढ़कर है। गायत्री की साधना में कठिन तपस्या अपेक्षित होती है।

गंगा सेवन के लिए यात्रा करनी पड़ती है, लेकिन, ‘गौ’ का लाभ तो घर बैठे ही मिल जाता है। श्री शंकराचार्य महाभाग कहते हैं-‘सर्वे देवाः स्थिता देहे सर्वदेवमयी हि गौः’-गाय के शरीर में सभी देवता निवास करते हैं, इसलिए गाय सर्वदेवमयी है।

गौमाता मातृशक्ति की साक्षात् प्रतिमा है। जिस दिन विश्व में गाय नहीं रहेंगी, उस दिन विश्व मातृशक्ति से विमुक्त हो जाएगा। प्राचीन युग में भारत के जिस वैभव की चर्चा इतिहास में मिलती है, उस वैभव के मूल में गौवंश ही है और पुनः भारत वैभव सम्पन्न हो, इसके लिए हमारा गौसेवी स्वभाव बनना आवश्यक है।

आज ‘गाय’ को साधारण पशु समझकर उसकी उपेक्षा की जा रही है, हम उसका महत्व नहीं समझ पा रहे हैं। यदि वाक् गायत्री है, प्राण गंगा है, तो मन ‘गौ’ ही है। ‘गौ’ इस लोक में तो हमारा उपकार करती ही है और मरने के बाद हमें वैतरणी से भी पार कराती है। गाय ना केवल हमारे राष्ट्रीय जीवन मूल्यों एवं सांस्कृतिक वैभव का प्रतीक है, वरन् हमारे अर्थतंत्र का आधार भी है।

इसी को ध्यान में रखते हुए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने ‘गौसेवा’ को अपनी गतिविधि बनाया। आज देशभर में गौसेवा गतिविधि की अपनी स्वतंत्र रचना और गौसेवा गतिविधि के हजारों कार्यकर्ता गोहत्या बंदी के साथ-साथ गायों की दुग्धोत्पादन क्षमता बढ़ाने, नस्ल सुधार, गांवों में किसानों को गौ-विज्ञान और गौ आधारित कृषि का प्रशिक्षण, गौपालन की उपयोगिता और गोमय पदार्थो के समुचित उपयोग आदि कार्यो के अनेकों प्रकल्पों का देशभर में संचालन कर रहे हैं।

इन सभी प्रकल्पों के माध्यम से समाज गौसेवी बने और गौवंश की प्रतिष्ठा स्थापित हो, इस महत्वपूर्ण विषय पर ‘मधुकर चतुर्वेदी’ ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की गौसेवा गतिविधि के अखिल भारतीय संयोजक ‘अजीत प्रसाद महापात्र’ जी से वार्ता की। प्रस्तुत हैं वार्ता के अंश.......।

प्र-1. गौसेवा गतिविधि कब प्रारंभ हुई और वर्तमान में इसकी प्रासंगिकता क्या है?

उ. राष्ट्र की उन्नति गौ-संवर्धन से होगी। गाय की महिमा के बारे में जब हम चर्चा करते हैं, तो ध्यान में आता है कि गाय समुद्र मंथन से उत्पन्न हुई। स्वर्ग में जाने के बाद गाय धरती पर आयी। ईश्वर की सृष्टि में नदी, जल, जीव-जंतु आदि जो भी है, उसके संरक्षण का दायित्व मनुष्य को मिला और सृष्टि संरक्षण में मनुष्य की जो सहायक बनी, वह गौमाता है। गाय की महिमा गाई और गरिमा समझी जाती है।

इसका यह अर्थ बिल्कुल नहीं है कि हम अन्य जीवों की उपेक्षा करें, सभी का अपना महत्व है। गाय की महिमा का वेद-शास्त्रों में गुणगान है। गौदान से बढ़कर कोई दान भी नहीं है। गौ वंदनीय और पूजन के योग्य है। जीवित रहते गाय का दूध और उसके बछड़ों का श्रम काम आता है, इतना ही नहीं मरने के बाद भी गाय के सभी अवयव खाद आदि के काम आते हैं।

गौमय और गौमूत्र की अपनी अलग उपयोगिता है। ऐसे अनेक कारणों को ध्यान में रखते हुए गौपालन, गौ संवर्धन को पुण्य माना गया है। गौ संवर्धन का विषय समाज के बीच लेकर जाना है, यह विषय राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के द्वितीय सरसंघचालक पूज्य गुरू जी के ध्यान में आया था। संतों के बीच पूज्य गुरू जी गौ रक्षा के विषय को लेकर गए।

बाद में मोरोपंत पिंगले जी ने गौ संवर्धन पर बहुत कार्य किया। किसान केवल दूध के लिए गाय के बारे में सोचता है, इस धारणा को बदलना है। स्वतंत्रता के बाद यह विषय ध्यान में नहीं होने के कारण समाज गाय से दूर होता चला गया। गाय गांव को छोड़कर रह नहीं सकती और गांव की कल्पना बिना गाय के हो नहीं सकती। इस कारण संघ ने इसको गतिविधि का नाम दिया है।

प्र-2. गौ संवर्धन गतिविधि की रचना किस प्रकार की है?

उ. गौ संवर्धन गतिविधि की टोली देश के प्रांतों में है। सभी प्रांतों में संयोजक और सह संयोजक हैं। पांच प्रकार के आयाम और उनके प्रमुख भी हैं। हर आयाम की भी टोली है और प्रशिक्षण प्रमुख भी हैं। विभाग में छोटी टोली और हर खंड, नगर में 6 कार्यकर्ताओं की टोली है।

हर खंड में एक-दो पर ध्यान देते हैं। माॅडल के नाते गांवों में गौसंवर्धन के कार्य को खड़ा किया जा रहा है। 10 को मिलाकर प्रशिक्षण का कार्य चलता रहता है और बाद में गांव एक शक्ति केंद्र का रूप लेता है। हमसे बड़ी संख्या में वैज्ञानिक भी जुड़े हैं।

कई गांवों में हमने ग्रामीणों को प्रशिक्षण कराया है। गौपालन से बड़ी संख्या में ग्रामीण जीवन को जोड़ा है।

प्र-3. हमारी मान्यताओं में गौ सर्वदेवमयी है, इसके बाद भी गौवंश रक्षा एक विमर्श का विषय है, ऐसा क्यों ?

उ. गाय जब घर से निकलती है, तब रक्षा की आवश्यकता होती है। एक तो सड़क दुर्घटना का डर रहता है, दूसरा उसका गलत हाथों में पड़कर बूचड़खाने में जाने का भी डर रहता है। आज किसान को लगने लगा है कि गाय के कारण उसका खर्चा हो रहा है लेकिन, उसको कल्पना नहीं है कि गाय के माध्यम से उसको कितना मिल सकता है।

समाज में गौ और गौमय पदार्थो की अनुपयोगिता को केंद्र में रखकर विदेशियों ने लंबे समय तक षडयंत्र किया। गाय को उपभोग की वस्तु बताकर हमें भ्रमित किया। भारत के लोग अपनी परंपराओं से दूरी बनाएं, इसके लिए पहले गाय को समाज को दूर करने के काम किए गए।

ऐसा भी नहीं है कि गौवंश की रक्षा और उसकी उपयोगिता पर केवल आज काम हो रहा है। कई महापुरूष ऐसे हुए, जिन्होंने गौवंश के संरक्षण के लिए अपने जीवन को लगाया। गौवंश की रक्षा की दृष्टि से जब विचार हुआ तो विश्व हिंदू परिषद ने इसको अपने हाथ में लिया।

युवाओं के बीच गौरक्षा के विषय को ले जाने के लिए बजरंगदल ने कार्यकर्ताओं के बीच रचना बनायी। सुदर्शन जी जब संघ के सरसंघचालक थे, तब उन्होंने सभी राज्यों के मुख्यमंत्रियों से मुलाकात की। गाय और गांव की चर्चा की। गाय को गौशाला में छोड़ देेने से गौरक्षा और गोपालन का स्वभाव नहीं बन सकता। गाय अपने लिए बोझ नहीं हैं, इस भावना का जागरण करने से गौरक्षा की आवश्यकता नहीं पड़ेगी।

प्र-4. आज गौवंश की भारी उपेक्षा हो रही है, इसके पीछे क्या कारण ध्यान में आते हैं?

उ. जब तक लोगों के मन में गाय के प्रति श्रद्धा थी, गाय कटती नहीं थी। हमारे देश में जितने प्रकार की व्यवस्था है, सभी में विदेशी तत्वों का प्रवेश है। समय-समय पर विदेशियों के ध्यान में आया कि भारत के लोग सब प्रकार से उन्नत हैं।

बीमार भी नहीं होते और लोग बीमार नहीं होंगे तो विदेशियों की दवाईयां भी नहीं चलेंगी। भारत में आयुर्वेद है, घर की साधारण औषधियों से भारतीय अपनी चिकित्सा करते हैं। गाय हमारे परिवार का अंग था। कोई भी अनुष्ठान करते हैं, तो उसमें भगवान को प्रिय गाय का दूध है।

हमको वहां से ऊर्जा मिलती थी। आज किसी भी मंदिर में जाएंगे, पैकेट के दूध से बनी सामग्री भोग में आती है और वह बीमार करता है। हमें जहां से ऊर्जा मिलती है, वहां पर विदेशियों ने वार किया। योजना बनाकर जर्सी गाय का प्रवेश यह कहकर कराया कि दूध ज्यादा मिलेगा।

स्वतंत्रता के बाद में जो परिवर्तन होना चाहिए था, वह हुआ क्या? नहीं हुआ। हमारा अन्न शुद्ध नहीं है, उसे शुद्ध करना पड़ेगा। आजादी से पहले हमारे देश में 62 करोड़ गौधन था। नंदबाबा के यहां 9 लाख गाय थीं। राधारानी के पिता वृषभान के पास 16 लाख गाय थीं। जिसके पास गाय और जमीन होती थी, वह बड़ा होता था, आज उल्टा हो गया है।

आज गाय अनाथ नहीं, हम अनाथ हो गए हैं। गाय के ज्यादा हम संकट में हैं। गाय के साथ में रहने वाला अपराधी और हिंसक नहीं बन सकता। जेलों के भीतर अगर अपराधी के पास गाय को छोड़ दो, तो उसके व्यवहार में परिवर्तन आता है। जर्सी का ना तो गोबर काम आता है और ना ही उसका दूध।

इस विदेशी चाल से हमें बाहर निकलना है। केवल कहने मात्र से गांव और किसान खुशहाल नहीं होंगे। पिछले 75 वर्षो से यही तो होता आया है।

प्र-5. आपने कहा कि गाय अपने लिए बोझ नहीं है, समाज इसको कैसे समझेगा?

उ. गाय कोई साधारण जीव नहीं है। उसमें असीम गुण मौजूद हैं। यदि कोई और आहार नहीं लिया जाए, केवल गाय के दूध का ही सेवन किया जाय तो व्यक्ति न केवल स्वस्थ, पुष्ट एवं सशक्त जीवन व्यतीत कर सकता है वरन् उसका स्वभाव भी सात्विक मानवोचित गुणों से ओत-प्रोत हो सकता है। बड़ी-से बड़ी स्वास्थ्य समस्या का हल पंचगव्य में है।

एकदम बू़ढ़ी गाय और बैल अकेले 50 हजार रू. तक किसान की आमदनी करा सकते हैं, इसका प्रशिक्षण देना जरूरी है। जीवित गाय तो किसान को अपने अमृमय दूध से धन दिलाती है लेकिन, मरने के बाद भी गाय बहुत उपयोगी है। जब गाय का शरीर पूरा होता है, तब उसको समाधि देने की एक प्रक्रिया है और समाधि देने के एक वर्ष जो खाद निकलती है, उससे बंजर जमीन भी उपजाऊ हो जाती है।

प्र-6. गाय की समाधि से प्राप्त खाद....इसके बारे में पहले कभी नहीं सुना...इसके बारे में बताइए?

उ. गाय को समाधि देने की एक प्राचीन परंपरा है। आज भारत में कई स्थानों अपितु, विदेशों में भी प्रयोग हो रहा है। मृत गाय के आकार के अनुसार 5 फीट लम्बा, 4 फीट चैड़ा तथा 5 फीट गहरा गड्ढा ऐसी जगह खोदा जाता है, जहां पानी भरने का खतरा न हो।

खोदे गए गड्ढे में सबसे पहले नीचे एक फीट देशी गाय का गोबर डाला जाता है तथा 25 किलो नमक डाला जाता है। फिर ऊपर मृत गाय को लिटा दिया जाता है। 15 महीने बाद एक गाय की समाधि खाद को निकालकर 3 एकड़ तक की कृषि योग्य भूमि में खाद के रूप में प्रयोग किया जा सकता है, जो 5 से 10 साल तक खाद के रूप में लाभदायक रहेगी, जिसमें खेती में प्रयोग होने वाले सभी पोषक तत्व व सूक्ष्मजीवों की आपूर्ति होगी।

मृत देशी गायों की बजरी खाद निकालते समय मिलने वाले सींगों से महाशक्ति जैविक खाद (केवल 30 ग्राम प्रति एकड़) बनाई जा सकती है। इसी प्रकार गौशाला की मृत गायों से समाधि खाद बनाकर गौशाला के पास पहले से उपलब्ध भूमि का उचित प्रबंधन किया जा सकता है।

इस खाद में पोटाश, नाइट्रोजन, फास्फोरस, कैल्शियम, मैग्निशियम, सल्फर, बोरान, जिंक सहित 16 तत्व होते हैं, जो फसलों के लिए लाभदायक हैं। अमेरिका में एक एकड़ के लिए इस खाद की कीमत 15 से 20 हजार और भारत में केवल 700 रू. प्रति एकड़ की लागत आती है।

प्र-7. हाल ही मथुरा के परखम ग्राम में एक गौ विज्ञान अनुसंधान केंद्र का निर्माण हुआ है, कुछ इसके बारे में बताइए?

उ. मथुरा के फरह में नगला चंद्रभान ग्राम है। यह पं. दीनदयाल उपाध्याय जी की जन्मस्थली है। दीनदयाल जी के दर्शन में कृषि और गौपालन है। दीनदयाल धाम की एक अपनी समिति है। कुछ प्रकल्प भी चलते हैं। एक छोटी गौशाला भी है और औषधी निर्माण के साथ ही गौपालन का प्रशिक्षण भी होता है। बाद में ध्यान में आया कि यह एक बड़ा विषय है। दीनदयाल धाम के पास परखम ग्राम में दीनदयाल गौ विज्ञान-अनुसंधान एवं प्रशिक्षण केंद्र की स्थापना की गयी है।

वर्ष 2023 के नवंबर माह में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक डाॅ. मोहन भागवत जी ने इस केंद्र का लोकार्पण किया है। यह केंद्र 40 एकड़ भूमि में तैयार हो रहा है। यहां 500 छात्र/छात्राएं गौ-विज्ञान पर शिक्षा प्राप्त करेंगे। आवासीय काॅम्पलेक्स के साथ ही प्रयोगशालाएं, गौशाला, दवाओं का निर्माण और पंचगव्य पर कार्य होगा।

6 विषयों पर प्रशिक्षण होगा और प्रमाण पत्र भी मिलेगा। यह ऐसा अनूठा केन्द्र होगा, जहाँ गौवंश नस्ल सुधार, पंचगव्य की गुणवत्ता सुधार पर विश्वस्तरीय अनुसंधान कार्य किए जाएंगे और गव्य उद्यमिता विकसित करने के लिए प्रशिक्षण मिलेगा। यहां विभिन्न विश्वस्तरीय प्रयोगशालाओं जैसे ‘ट्रॉसलेशनल रिसर्च सेन्टर‘, ‘मौलिक्यूलर बायोलॉजिकल टेस्टिंग लैब और ‘एनिमल लैब का निर्माण किया जा रहा है। आगरा व मथुरा के विश्वविद्यालयों के साथ एमओयू भी साइन हो चुका है। आगे यह प्रकल्प विश्वविद्यालय तक ले जाने की योजना है।

परखम प्रकल्प की उपयोगिता को आप ऐसे समझ सकते हैं कि लखनऊ में गौ विज्ञान की शिक्षा प्राप्त करनी है तो संसाधन हैं लेकिन, लैब नहीं है। कानपुर और वाराणसी में भी लैब नहीं है। मथुरा और रायबरेली में लैब है। ऐसे में शोधकार्य कैसे संभव है। परखम में जो लैब बनेगी, उससे गौ-विज्ञान, कृषि, पंचगव्य, दवाओं का निर्माण आदि पर शोधकार्य होगा। वर्ष 2024 में मार्च के बाद कक्षाएं शुरू हो जाएंगी।

प्र-8. परखम जैसे केंद्र देशभर में स्थापित हों, ऐसी कोई योजना है क्या ?

उ. हां, बिल्कुल है। अभी हिसार में परखम जैसा केंद्र है। राजस्थान में तीन स्थानों पर है। बंगाल में दो स्थानों बनने जा रहा है। कुछ गौशाला कार्यकर्ता चलाते हैं, कुछ ट्रस्ट हैं। जिसके पास जमीन भी है और अन्य व्यवस्थाएं हैं, वहां पर इस प्रकार के केंद्र बनेंगे। हर प्रांत में एक या दो केंद्र बनें, ऐसा प्रयास चल रहा है। कुछ संत भी आगे आए हैं।

प्र-9. वर्तमान में कैंसर रोग बहुत बढ़ रहा है और गौमूत्र चिकित्सा इसमें लाभ देती दिख रही है, क्या परखम जैसे केंद्रों में कैंसर से बचाव के लिए औषधी निर्माण होगा?

उ. परखम का दीनदयाल गौ विज्ञान-अनुसंधान एवं प्रशिक्षण केंद्र आने वाले दिनों में कैंसर मुक्त भारत की आधारशिला अवश्य रखेगा। क्योंकि कैंसर जैसे भयानक रोग की चिकित्सा केवल गौमय पदार्थो से ही संभव है। गौमूत्र से कैंसर ठीक हो रहा है, यह ध्यान में आ रहा है। वैसे दीनदयाल धाम में दवाईयां तो अभी भी बन रही है। परखम में 12 प्रकार के उत्पाद भी तैयार हो रहे हैं। गाय के दूध, दही, छाछ, गौमूत्र और गौरस से कई बीमारियों का इलाज संभव है।

कैंसर सहित अन्य रोगों से बचाव के शोध और दवाओं के निर्माण के अलावा सौ से अधिक उत्पादों का निर्माण परखम में होगा। हमारा नित्य व्यवहार गौ आधारित हो, ऐसा हम समाज में प्रबोधन करने जा रहे हैं।

प्र-10. पंचगव्य किस प्रकार से मानव के लिए उपयोगी हो सकता है?

उ. गौमाता ने मानव को पंचगव्य उपहार रूवरूप दिया है। गाय के ‘गोबर, दूध और गोमूत्र’ ऐसे तीन गव्य हैं। दूध से दही, घी और छाछ निकालते हैं। दूध, दही, घी, गोबर और गौमूत्र से पंचगव्य बनता है। पंचगव्य की वर्तमान में बहुत उपयोगिता है।

आयुर्वेद में इसका इस्तेमाल औषधि के रूप में किया जाता है। प्राचीन समय में इसका उपयोग खेती की उर्वरक शक्ति और उसकी क्षमता को बढ़ाने के लिए भी किया जाता था, साथ ही पौधों में रोग प्रतिरोधक क्षमता को बढाने के लिए भी किया जाता था।

इसी कारण पुराने समय में खेती अच्छी होती थी। अकेले पंचगव्य मानव स्वास्थ्य सहित पूरी धरती की मलिनता को दूर करने में सक्षम है। इसकी रक्षा होनी चहिए।

प्र-11. आजकल देखा जा रहा है कि लोग गिर और साहीवाल जैसी गौ-नस्लों के प्रति आकर्षित हो रहे हैं, बाकी नस्लों का क्या होगा?

उ. जिस क्षेत्र में जो गाय की नस्ल है, उसे वहीं रखना ठीक है। गिर और साहीवाल अधिक दूध देती है, यह ठीक है लेकिन बाकी नस्लों की देशी गाय भी दूध देती हैं, उनके अपने गुण हैं, इसे भी ध्यान में रखना है। गाय का वातावरण बदलने से दूध कम हो जाता है।

जैसे मथुरा के व्यक्ति को चेन्नई में रहना पड़े, वहां डोसा और इडली रोज खाने को मिले और चेन्नई के व्यक्ति को मथुरा में रहकर रोजाना रोटी और पूड़ी खाने को मिले, उस पर जो प्रभाव पड़ेगा, वही स्थिति गिर और साहीवाल गाय की है।

गाय के स्थान परिवर्तन से क्या गर्भधारण के समय उस नस्ल का नंदी मिलेगा? नहीं मिला तो अगली बार में उस गाय का दूध कम हो जाएगा। उस नस्ल की वंशवृद्धि रूक जाएगी। गौसेवा गतिविधि के माध्यम से हर प्रजाति के ब्रीडिंग सेंटर तैयार हो रहे हैं।

उड़ीसा में बिंजानपुरी नस्ल की छोटी गाय होती है। पहले 2 लीटर दूध देती थी। तीन-चार पीढ़ी तक अनुभव के आधार पर गतिविधि के कार्यकर्ताओं ने नस्ल सुधार पर काम किया, आज 7 लीटर दूध दे रही है। वहीं हरियाणा की साहीवाल 10 ली. दूध देती थी, आज 18 ली. दे रही है। गौ संवर्धन गतिविधि की देखरेख में आज देश के 12 स्थानों पर नस्ल सुधार का काम चल रहा है।

प्र-12. आप देशभर में प्रवास करते हैं, कुछ अच्छी गौशाला आपके ध्यान में आयी होंगी, इसके बारे में कुछ बताएं?

उ. अहमदाबाद में गोपाल भाई की बहुत सुंदर गिरवंशी गौशाला है। गौकृपा अमृतम् नाम से गौ सुधार केंद्र है। उन्होंने तय किया है कि गाय को बेचेंगे नहीं। जीवांमृत नाम से खाद तैयार करते हैं। उस खाद से 700 रू. में एक एकड़ खेती निकाल सकते हैं। अकोला, लखनऊ, धारवाड़, गंगानगर, हरियाणा, तमिलनाड़ु में कई गौशालाएं अच्छा काम कर रही हैं। हम उनके कार्य से सीखकर कार्यकर्ताओं को प्रशिक्षित भी कर रहे हैं। देशभर में 300 अच्छी गौशालाओं से हमार संपर्क हुआ है।

प्र-13. युवाओं के बीच विशेषतः स्कूली छात्र-छात्राओं में गाय के प्रति आत्मीयता के भाव जगें, इसके लिए क्या कोई योजना है?

उ. समाज गाय से प्रेरणा ले, युवाओं में गौवंश के माध्यम से संस्कार बनें, इसके लिए हम कई योजनाओं पर काम रहे हैं। अप्रैल से जनवरी माह के मध्य देशभर में गौ-विज्ञान पर परीक्षा चल रही है। 10 हजार स्थानों पर हर वर्ष 8 लाख स्कूली छात्र-छात्राएं इसमें सहभागी होते हैं। कहीं-कहीं आनलाइन भी होती है। वर्ष 2024 से केवल प्रत्यक्ष परीक्षा ही करेंगे।

महाविद्यालय स्तर पर भी परीक्षा, गोष्ठी, सेमिनार आदि करने जा रहे हैं। इसमें माता-पिता को भी जोड़ेंगे और अखिल भारतीय स्तर पर पुरस्कार भी देंगे। आगे गाय का विषय स्कूली पाठ्यक्रम में आए, इस पर काम चल रहा है। इस वर्ष गाय पर आधारित एक ‘नवधा फिल्म फेस्टिवल भी हुआ है।

प्रतिवर्ष कार्तिक शुल्क अष्टमी को ‘गोपाष्टमी’ महोत्सव देशभर में मनाते हैं। संत, महात्माओं के साथ आम नागरिकों का प्रबोधन करते हैं। गौ प्रतियोगितों का आयोजन भी करते हैं। गौसेवा संगम, किसानों को गौ-उत्पाद, गौपालन का वैज्ञानिकों द्वारा प्रशिक्षण कार्यक्रम भी वर्षभर चलते हैं। गौ आधारित साहित्य का निर्माण और यह घर-घर तक पहुंचे, यह कार्य भी चल रहा है। 

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