करवट बदल रहा मुस्लिम मतदाता का मानस

उमेश चतुर्वेदी

Update: 2023-04-22 10:37 GMT

वेबडेस्क। राजनीति ही क्या,जो अच्छी और बुरी घटनाओं का फायदा उठाने की कोशिश ना करे। जिस लोकतंत्र को शासन के बेहतर माध्यम के रूप में पूरी दुनिया में स्वीकार्यता है, उसी लोकतंत्र की खामी है कि वह घटनाओं की व्याख्या सार्वकालिक और सार्वजनिक हित के नजरिए से नहीं करती, बल्कि उनके संदर्भों का इस्तेमाल अपने लाभ और हानि की दृष्टि से करती है। कहना न होगा कि अतीक अहमद और उसके भाई असरफ की हत्या को लेकर राजनीति भी इसी अंदाज में आगे बढ़ रही है।

उत्तर प्रदेश के तीनों प्रमुख राजनीतिक दलों की मौजूदा राजनीति इन दिनों अतीक और उसके भाई की हत्या की रोंगटे खड़ी कर देने वाली घटना के ही इर्द-गिर्द घूम रही है। यूं तो समूचा विपक्ष पुलिस कस्टडी में हुई हत्या के लिए राज्य की योगी आदित्यनाथ सरकार पर सवाल उठा रहा है। लेकिन इसमें सबसे आगे समाजवादी पार्टी है। उत्तर प्रदेश में अपने उभार के दिनों से ही समाजवादी पार्टी राज्य के मुसलमानों की पसंदीदा पार्टी रही है। राज्य का मुसलमान और यादव मतदाता उसका आधार वोटबैंक रहा है। यही वजह है कि समाजवादी पार्टी अतीक अहमद और उसके भाई अशरफ की पुलिस कस्टडी में हुई हत्या को बाकी दलों की तुलना में ज्यादा उठा रही है। वैसे अतीक अहमद की पत्नी शाइस्ता बहुजन समाज पार्टी की सदस्य बन चुकी थी। मौजूदा नगरनिगम चुनाव में प्रयागराज के मेयर पद के लिए उसे बहुजन समाज पार्टी की ओर से उम्मीदवार बनाए जाने की तकरीबन तैयारी थी। लेकिन बदले हुए घटनाक्रम में स्थितियां बदल चुकी हैं। बहुजन समाज पार्टी अतीक के मामले की सुनवाई में तेजी आने के बाद से ही शाइस्ता की उम्मीदवारी पर ब्रेक लगा चुकी थी। अलबत्ता वह भी पुलिस कस्टडी में हुई हत्या को मुद्दा बना रही है।

विपक्षी राजनीति की यह पूरी कवायद कम से मौजूदा नगर निकाय चुनावों में मुस्लिम वोटरों को अपनी ओर लुभाने की दिशा में उठाया गया कदम लग रहा है। लेकिन सवाल यह है कि क्या मुस्लिम वोटर अब भी समाजवादी पार्टी की ओर जाएंगे। क्या वे हालिया अतीत की तरह उनकी सबसे पसंदीदा पार्टी समाजवादी पार्टी बनी रहेगी? या फिर मुस्लिम आधार वोटर बहुजन समाज पार्टी की ओर जाएगा। अतीत में मुस्लिम वोटर बहुजन समाज पार्टी का भी साथ दे चुका है। इसलिए ऐसा आकलन बेमानी भी नहीं कहा जा सकता।

मुस्लिम वोटरों के भावी रूझान पर चर्चा से पहले जान लेना चाहिए कि उत्तर प्रदेश में मुस्लिम समुदाय के वोटरों के आंकड़े क्या हैं। आंकड़ों को मुताबिक, राज्य में करीब 20 फीसद मुस्लिम मतदाता हैं। जो राज्य की 403 विधानसभा सीटों में से 143 सीटों पर मुस्लिम वोटरों का ज्यादा असर है। इनमें से 70 सीटें ऐसी हैं, जहां मुस्लिम मतदाताओं की आबादी 20 से 30 प्रतिशत के बीच है। जबकि 73 सीटें ऐसी हैं. जहां मुसलमान मतदाताओं की संख्या30 प्रतिशत से ज्यादा है। इतना ही नहीं, उत्तर प्रदेश की करीब तीन दर्जन ऐसी विधानसभा सीटें हैं, जहां मुस्लिम उम्मीदवार ही चुनावों में बाजी मारते रहे हैं। इसी तरह करीब 107 विधानसभा सीटों पर करीब हर चुनाव में मुस्लिम मतदाताओं ने ही चुनावी नतीजों को प्रभावित किया।

राज्य में तीस प्रतिशत से ज्यादा आबादी वाले 14 जिले हैं। सबसे ज्यादा मुस्लिम आबादी वाला जिला मुरादाबाद है, जहां50.80 फीसद मुस्लिम जनसंख्या है। इसी तरह रामपुर में 50.57 फीसद, बिजनौर में 43.04 फीसद, सहारनपुर में 41.97 फीसद, मुजफ्फरनगर में 41.11 फीसद, शामली में 41.73 फीसद, अमरोहा में 40.78 फीसद, हापुड़ में 32.39 फीसद, मेरठ में 34.43 फीसद, संभल में 32.88 फीसदी, बहराइच में 33.53 फीसद, बलरामपुर में 37.51 फीसद, बरेली में 34.54 फीसद और श्रावस्ती में 30.79 फीसद मुस्लिम जनसंख्या निवास करती है। जाहिर है कि यहां के मतदाताओं समूह में मुस्लिम मतदाता की हिस्सेदारी भी तकरीबन इतनी ही है।

राज्य में बारह जिले ऐसे हैं, जहां की आबादी में मुसलमानों की भागीदारी 15 से लेकर तीस प्रतिशत के बीच है। बागपत में जहां मुस्लिम आबादी की हिस्सेदारी 27.98 प्रतिशत है, वहीं अमेठी में 20.06 फीसद है। इसी तरहअलीगढ़ में 19.85 फीसद, गोंडा में 19.76 प्रतिशत, लखीमपुर खीरी में 20.08 फीसद, लखनऊ में 21.46 प्रतिशत, मऊ में 19.46 प्रतिशत, महाराजगंज में 17.46 फीसद, पीलीभीत में 24.11 फीसद, संत कबीरनगर में 23.58 प्रतिशत, सिद्धार्थनगर में 29.23 प्रतिशत, सीतापुर में 19.93 फीसद और वाराणसी में 14.88 फीसद आबादी मुसलमानों की है।लेकिन सवाल यह है कि क्या अतीक की घटना के बाद मुसलमान अब भी समाजवादी पार्टी से उतना ही झुकाव रखते हैं।

इसका जवाब स्थानीय मीडिया रिपोर्टों और यू ट्यूब चैनलों पर प्रसारित होने वाले मुस्लिम समुदाय के इंटरव्यू में एक हद दिख रहा है। मुस्लिम समाज मान रहा है कि अतीत का ऐसा हाल नहीं हुआ होता, अगर उमेश पाल हत्याकांड के बाद समाजवादी पार्टी ने उत्तर प्रदेश की विधानसभा में मामलों को सरगर्मी के साथ नहीं उठाया होता। मुसलमान आबादी का बड़ा हिस्सा इस बात को स्वीकार करने से हिचक नहीं रहा है कि अखिलेश यादव ने योगी आदित्यनाथ को उकसाया और उसके बाद ही योगी ने विधानसभा में चर्चित बयान दिया कि माफिया को मिट्टी में मिला देंगे। उसी बयान का संदेश गया और अतीक अहमद का साम्राज्य ढह गया। पहले उसके बच्चे का एनकाउंटर हुआ और फिर दोनों भाई मार दिए गए। अतीक चाहे जितना भी बड़ा माफिया हो, उसे लेकर कम से मुस्लिम समुदाय में सहानुभूति दिख रही है और इसे जाहिर करने से वह हिचक भी नहीं रहा है। लेकिन इसके लिए वह समाजवादी पार्टी को सीधे-सीधे जिम्मेदार ठहरा रहा है।

मुस्लिम बौद्धिक इस मुद्दे पर खुलकर भले ही न बोल रहे हों, लेकिन निजी बातचीत में वे भी समाजवादी पार्टी से निराश दिख रहे हैं। पिछले दिनों वाराणसी के एक मुस्लिम बुद्धिजीवी ने इशारे में बता दिया कि मुस्लिम समुदाय एक बार फिर कांग्रेस की ओर उम्मीदभरी निगाह से देख रहा है। लेकिन कांग्रेस का संकट यह है कि उसका संगठन कम से भाजपा प्रभावी राज्यों में कहीं ज्यादा लचर और कमजोर नजर आ रहा है। ध्यान रहे , इन्हीं राज्यों में समाजवादी और बहुजन समाज जैसी पार्टियां भी सक्रिय हैं। कांग्रेस की इस कमी के बावजूद अगर उत्तर प्रदेश का मुस्लिम मतदाता कांग्रेस की ओर उम्मीद भरी नजर से देख रहा है और अगर ऐसा ही माहौल बना रहा तो तय मानिए कि उत्तर भारत के राज्यों में राजनीतिक समीकरण बदल सकते हैं। वैसे मुस्लिम मतदाताओं की खासियत एक है कि वह देश के चाहे किसी भी कोने का हो, उसकी चुनावी सोच कमोबेश एक जैसी ही होती है। अपवादों को छोड़े दें तो वह एक तरह से सोचता है और उसका वोटिंग पैटर्न भी एक जैसा ही होता है।

लेकिन सवाल यह है कि अगर कांग्रेस को दूसरी बिरादरियों का थोक सहयोग नहीं मिले तो क्या मुस्लिम वोट बैंक कांग्रेस के पक्ष में प्रभावी नतीजे लाने का आधार बन सकेगा? निश्चित तौर पर इसका जवाब ना में है। ऐसे में देखना होगा कि मुस्लिम वोटरों का जो बदला मानस दिख रहा है, वह चुनावी मौके तक बरकरार रह पाता है या नहीं? रही बात राजनीति की तो वह अपने तरीके से समीकरण बनाने और साधने की कोशिश करती रहेगी।

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