भारत में जहर घोलतीं ऑनलाइन वेब सीरीज

रवीन्द्र दीक्षित

Update: 2020-07-19 12:51 GMT

स्वदेश वेबडेस्क।  अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता एक मौलिक अधिकार के तौर पर भरतीय संविधान में आधारभूत तरीके से जोड़ा गया पर इसकी सार्थकता एवं उपयोगिता तभी तक है जब तक कि इसके द्वारा दूसरे के मौलिक अधिकारों का हनन नहीं होता है। जैसे ही बोलने और विचार व्यक्त करने की स्वतंत्रता दूसरे व्यक्ति के मौलिक अधिकारों का अतिक्रमण करती है। यह अधिकार अपराध में बदल जाता है।

इस बात की उपयोगिता का मनन चिंतन करना वर्तमान में अत्यंत आवश्यक हो गया है, क्योंकि हम वर्तमान में डिजिटल युग में जी रहे हैं। लोगों का जीवन अब इंटरनेट पर उपलब्ध सामग्री पर निर्भर हो गया है। इसलिए सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम की उपयोगिता कई गुना बढ़ गई है।

कोविड-१९ की महामारी के इस दौर में पूरी दुनिया अपने सभी कार्य फिर चाहे वह दैनिक जीवन से जुड़े हों या शैक्षणिक या मनोरंजन या बौद्धिक क्षेत्र से जुड़े हों डिजिटल प्लेटफार्म जिंदगी का अभिन्न हिस्सा हो गया है।

वर्तमान में कोरोना महामारी को लेकर वैसे भी दुनिया भर के लोग अवसाद से ग्रसित हो रहे हैं। ऐसे में उनके मनोरंजन के लिए डिजिटल प्लेटफार्म कई तरह के प्रयोग कर रहा है। जिसका सदुपयोग है कि लोग दूर होकर भी पास होने का आभास करते हैं पर दुरुपयोग इतना गंभीर हो रहा है कि उस पर विचार करने के लिए हम अभी मानसिक रूप से तैयार ही नहीं हो पाए हैं।

मनोरंजन या फिल्म जगत की दुनिया हमारे जीवन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा सा बन गया है। कई चिकित्सीय इलाज भी मनोरंजन के माध्यम से किए जाते हैं क्योंकि मनोरंजन हमारे दिमागी संतुलन को बनाने भावनाओं को केन्द्रित करने एवं उन्हें उजागर करने का एक जरिया है यही मनोरंजन के नाम पर डिजिटल प्लेटफार्म ओटीटी (ओवर द टॉप) हमारे दिमाग में उस जहर का भी बीज अंकुरित कर रहा है जो लोगों को न सिर्फ हिंसक बनाने में सहयोग कर रहा है बल्कि हिंदू धर्म को एक खलनायक बतौर परोसकर लोगों के धार्मिक नजरिए को बदलने का लगातार प्रयास कर रहा है। सनातन परंपराओं को अंधविश्वास एवं सामाजिक कुरितियों के तौर पर दिखाया जाकर उसके प्रति देश के लोगों खासकर युवा पीढ़ी को भ्रमित कर नास्तिक बनाने की ओर अग्रसित है।

हाल ही में ओटीटी प्लेटफार्म जिसमें वेब सीरीज के माध्यम से हिंदू सनातन परंपराओं को दुराशय के साथ एक हिंसक, दुराचारी एवं अय्याश शेणी में खड़ा करने का कुत्सित प्रयास एक विशेष वैचारिक वर्ग द्वारा चल रहा है। हाल ही में ओटीटी प्लेटफार्म पर दिखाई गई कई फिल्में, सेंकेण्ड गेम, पाताल लोक, बेताल एवं अन्य कई फिल्में जिनमें अश्लील भाषा प्रयोग एवं चित्रण भरपूर किया गया है। साथ ही साथ हिन्दू रीति रिवाजो को ढकोसला बताते हुए मंदिरों एवं मठों का अपमान किया गया है। हाल ही में निर्माता निर्देशक एकता कपूर द्वारा भारतीय सेना में पदस्थ सैनिकों को भी अपमानित करने का भरपूर प्रयास किया गया। पाताल लोक नामक वेब सीरीज में साधु-संतों का बुरा अश्लील चित्रण किया गया, उसमें एक कुतिया का नाम हिंदुओं की आराध्य मां सावित्री के नाम किया। सिक्ख संप्रदाय जो कि अपनी वीरता एवं त्याग बलिदान के लिए जाना जाता है, उसे दुराचारी बलात्कारी के तौर पर दिखाया गया है। हलांकि इन फिल्मों के निर्माता के विरुद्ध आपराधिक प्रकरण पंजीबद्ध करने हेतु विभिन्न पुलिस थानों में आवेदन दिए गए पर ऐसी फिल्मों का निर्माण लगातार जारी है क्योंकि इनमें शासन के दिशा-निर्देशों की कोई भी बंदिश नहीं है।

डिजिटल युग ने स्वतंत्रता के नाम पर खुलेआम छोटे-छोटे बच्चों के हाथों में कुछ एक ओटीटी एप्प पोर्न पिक्चरों को घरों में पहुंचा दिया है। इन ओटीटी एप्प जैसे ड्डद्यह्ल, ह्वद्यद्यह्व, द्धशह्लह्यद्धशह्लह्य आदि को सरकार द्वारा तुरंत ही भारत में प्रतिबंधित करना चाहिए। आज डिजिटल स्वतंत्रता के नाम पर बच्चों को ऐसी सामग्री देखने को खुलेआम मजबूर होना पड़ रहा है, जो उन्हें समय पूर्व ही बड़ा बना रही है।

इन अश्लील सामग्री में अति हिंसक सामग्री का दुष्परिणाम यह है कि बाल अपराध में दिन प्रतिदिन बढ़ोत्तरी हो रही है। मैं अपने व्यावसायिक अनुभव के आधार पर दावे के साथ कह रहा हूं कि कई मुकदमों में अपराधी ने स्वीकार किया है कि अश्लील व हिंसक फिल्मों के देखने के परिणाम स्वरूप अपराध का ख्याल व वारदात को देने का तरीका सीखा। इन ओटीटी प्लेटफार्म ने समाज में बढ़ रहे हिंसक व्यवहार की बढ़ोत्तरी करने में बहुत बड़ी भूमिका निभाई है।

इसी को ध्यान में रखकर जस्टिस फॉर राइट्स फाउंडेशन के द्वारा दिल्ली उच्च न्यायालय के समक्ष एक जनहित याचिका क्रमांक डब्ल्यूपी(सी)१११६४/२०१८ प्रस्तुत की गई थी। जिसमें मुख्य रूप से ओटीटी प्लेटफार्म के माध्यम से रिलीज होने वाली फिल्मों को सेंसर बोर्ड के दायरे में लाने की मांग की गई एवं केन्द्र सरकार को इस हेतु आवश्यक दिशा निर्देश दिए जाने की मांग मुख्यत: याचिका में की गई थी। उक्त याचिका में केन्द्र सरकार द्वारा हलफनामा दायर कर बताया गया कि इंटरनेट पर सीधे तौर पर जारी होने वाली फिल्मों पर सूचना प्रसारण मंत्रालय का कोई प्रभाव नहीं होता है और न ही उनको केन्द्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड के प्रमाण पत्र की आवश्यकता है। इस संबंध में सिनेमेटोग्राफ अधिनियम में किसी भी प्रकार का कोई प्रावधान मौजूद नहीं है। इस आधार पर दिल्ली उच्च न्यायालय ने उस याचिका को आदेश ०८/०२/२०१९ से खारिज कर दिया। साथ ही साथ निर्देशित किया कि सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम की धारा ६७ एवं ६९ के तहत कोई भी व्यक्ति संबंधित आपत्तिजनक तथ्यों या फिल्मों के विरूद्ध आपराधिक प्रकरण पंजीबद्ध कराने के लिए स्वतंत्र है।

दिल्ली उच्च न्यायालय के आदेश के विरूद्ध माननीय सर्वोच्च न्यायालय दिल्ली के समक्ष याचिका क्रमांक १०९३७/२०१९ लंबित है। जिसमें सर्वोच्च न्यायालय ने केन्द्र सरकार को नोटिस जारी कर पूछा है कि सरकार ओटीटी के माध्यम से जनता के आगे परोसी जाने वाली अश्लील सामग्री पर रोक लगाने के लिए क्या कदम उठा रही है? जिसका जवाब अभी केन्द्र सरकार की ओर से दिया जाना है।

अब प्रश्न उठता है कि क्या इंटरनेट पर कुछ भी प्रस्तुत किया जा सकता है? क्या ओटीटी फिल्मों पर सरकार बंदिश नहीं लगा सकती है? क्या अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर सांस्कृतिक प्रदूषण की अनुमति दी जा सकती है?

तो जब प्रश्न चिन्ह लगाने का दायित्व हम निभाते हैं तो उसके निदान के रास्ते भी खोजना हमारा सामाजिक दायित्व है। भारत में किसी भी प्रकार की मनोरंजन सामग्री जिसमें नाटक, फीचर फिल्म, लघु फिल्में शामिल हंै उनके निर्माण के बाद जनता के आगे प्रस्तुत किए जाने के पूर्व सिनेमेटोग्राफ अधिनियम १९५२ के तहत गठित केन्द्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड द्वारा जारी प्रमाण पत्र लेना अनिवार्य होता है।

सिनेमेटोग्राफ अधिनियम १९५२ संविधान की सातवीं अनुसूची में वर्णित केन्द्रीय सूची का विषय है। जिसका मुख्य उद्देश्य जनता के लिए जारी होने के पूर्व उसको लायसेंस देकर फिल्मों के विषय एवं चित्रण अनुसार उसे ए, यू/ए व यू श्रेणी के तहत प्रमाणित करना होता है। इस अधिनियम में समय-समय पर वर्ष १९५३, १९५९, १९७३, १९८१ एवंं 1984 में संशोधन किया गया एवं समयानुसार परिवर्तन किया गया। तो अब एक बार पुन: डिजिटल इंडिया के इस दौर में ओटीटी फिल्मों के बढ़ते चलन को देखते हुए केन्द्र सरकार को एक बार पुन: इसमें संशोधन कर वर्तमान में हो रहे सांस्कृतिक प्रदूषण को रोकना अत्यंत आवश्यक है। क्योंकि सोची समझी साजिश के तहत ओटीटी प्लेटफार्म की आड़ में हिन्दू देवी देवताओं परंपराओं का मखौल उड़ाया जा रहा है। लोगों के अपने धर्म, आस्था सनातन परंपराओं के प्रति व्यक्त विश्वास को क्षतिग्रस्त करने का कुत्सित प्रयास हो रहा है।

अब समाज के समस्त जागरुक शिक्षाविद, इतिहासकार, प्रोफेसर, डॉक्टर अभिभाषक, पत्रकार, धार्मिक संस्थाओं से जुड़े लोग, कुल मिलाकर अगर बोला जाए तो समाज के हर वर्ग से जुड़े व्यक्ति को अपनी आवाज इस सांस्कृतिक प्रदूषण के जनक ओटीटी प्लेटफार्म के खिलाफ बुलंद करनी होगी। लोगों को केन्द्र सरकार पर दबाव बनाना पड़ेगा फिर वो चाहे संगोष्ठियों, लेखों, अभ्यावेदनों के माध्यम से हो सकता है और सिनेमोटोग्राफ अधिनियम १९५२ में संशोधन कर ओटीटी प्लेटफार्म के जरिए जारी होने वाली फिल्मी सामग्री को भी केन्द्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड द्वारा जारी प्रमाण पत्र जारी करने की अनिवार्यता करनी होगी ताकि देश की भविष्य की पीढ़ी को सांस्कृतिक रूप से प्रदूषित होने से बचाया जा सके।

(लेखक उच्च न्यायालय ग्वालियर में अधिवक्ता हैं )


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