विश्व शेर दिवस पर विशेष : सफेद शेरों की धरती रीवा
डॉ. अखिलेश शुक्ल भारत सरकार द्वारा प्रतिष्ठित पन्त तथा भारतेन्दु हरिश्चन्द्र अवार्ड से सम्मानित प्राध्यापक समाजशास्त्र शासकीय ठाकुर रणमत सिंह महाविद्यालय रीवा
वेबडेस्क। साहसी जानवर शेर के बारे में जागरूकता बढ़ाने और उनकी सुरक्षा और संरक्षण के लिए समर्थन जुटाने के लिए हर साल 10 अगस्त को विश्व शेर दिवस सन 2013 से नियमित रूप से मनाया जाता है। पिछले सौ वर्षों में, दुनिया भर में शेरों की संख्या में लगभग 80 प्रतिशत की गिरावट देखी गई है। वर्तमान समय में पूर्व विश्व समुदाय शेरों के संरक्षण के लिए प्रयासरत है।
प्रकृति की अनुपम एवं विरली देन ”सफेद शेर“ सर्वप्रथम 1914-15 में रीवा नरेश महाराज व्यंकट रमण सिंह द्वारा पकड़ा गया था। इस सफेद शेर को रीवा नगर के व्यंकट भवन परिसर में रखा गया था। उसके निधन के पश्चात उसे स्टफ कराकर ब्रिटिश सम्राट को भेंट किया गया था। यह अभी भी नेचुरल हिस्ट्री म्यूजियम लंदन में संरक्षित है।
सन् 1920 में रीवा स्टेट के आई.जी. पुलिस मिस्टर एच.ई. स्काट ने रीवा राज्य के वनों में अलग-अलग समय पर 8 सफेद शेर देखे थे। महाराज व्यंकट रमण सिंह के पुत्र महाराज गुलाब सिंह भी एक दो बार सफेद शेर के शावक पकड़वाने में सफल हुये थे, किन्तु वे शावक जीवित न रह सके। सफेद शेर की प्रजाति के संवर्धन में सर्वाधिक महत्वपूर्ण योगदान महाराज गुलाब सिंह के पुत्र महाराज मार्तण्ड सिंह का रहा है। संसार के चिड़ियाघरों मे आज जितने भी सफेद शेर हैं, सभी प्रथम संरक्षित सफेद शेर ”मोहन“ के वंशज हैं। सफेद शेर मोहन को महाराज मार्तण्ड सिंह ने सीधी जिले के गोपद बनास तहसील के बरगड़ी के जंगल में घेरा डालकर 27 मई 1951 को पकड़ा था। कहा जाता है कि विश्व प्रसिद्ध इस शेर का जन्म कैमोर पर्वत श्रेणी के जंगलों में 27 अगस्त 1950 को हुआ था। इस तरह जिस समय महाराज मार्तण्ड सिंह ने उसे पकड़वाया, उस समय उसकी आयु 9 माह की थी। मोहन को गोविन्दगढ़ किले में रखा गया।
महाराज मार्तण्ड सिंह को प्राणि विज्ञान का अच्छा ज्ञान था और उन्होंने विश्व प्रसिद्ध प्राणि वैज्ञानिकों से परामर्श कर रीवा में सफेद शेर की वंश वृद्धि के लिये प्रयास शुरू किये। उन्होंने गोविन्दगढ़ किले में विशेषज्ञों के परामर्श के अनुसार मोहन को एक सामान्य शेरनी ”राधा“ के साथ रखा। दोनों के संसर्ग से दस शावकों ने जन्म लिया, किन्तु वह सभी सामान्य रंग के थे। किन्तु महाराज मार्तण्ड सिंह ने हार नहीं मानी और वैज्ञानिक विशेषज्ञों के परामर्श के अनुसार मोहन को उसी की सन्तति ”रामबाई“ नामक शेरनी के साथ रखा गया। 30 अक्टूबर 1956 को रामबाई ने एक नर व तीन मादा शावकों को जन्म दिया। चारों सफेद रंग के थे। इस तरह सफेद शेर की वंश परंपरा प्रारंभ हुई। दूसरी बार रामबाई ने दो सफेद नर शावक और सामान्य रंग की एक मादा शावक को जन्म दिया। इन दोनों सफेद शेर शावकों को 9 अगस्त 1962 को कलकत्ता के चिड़ियाघर में भेज दिया गया था।
वर्ष 1962 में ही गोविन्दगढ़ में पल रहे दो सफेद शेर शावकों में से एक अमेरिका व एक इंग्लैंड के ब्रिस्टल चिड़ियाघर में भेज दिया गया था। इसके बाद मोहन के साथ कई अन्य शेरनियों को रखा गया और उनसे पैदा हुए शावकों को अलग-अलग चिड़ियाघरों में भेजा गया। इस प्रकार महाराजा मार्तण्ड सिंह के प्रयासों से सफेद शेरों की अच्छी व सुनियोजित वंशवृद्धि हुई। विश्वभर में प्रसिद्धि पा चुके शेर ”मोहन“ ने 18 दिसंबर 1967 को अंतिम सांस ली। किसी वन्य प्राणी के लिए यह पहला मौका था, कि जब उसका अंतिम संस्कार राजकीय सम्मान से किया गया। मोहन का सिर आज भी ”बाघेला म्यूजियम“ रीवा में संरक्षित है। इसके 200 वंशज आज देश और विदेश के विभिन्न चिड़याघरों में मौजूद हैं। इस तरह हम कह सकते हैं कि संसार को सफेद शेर की नस्ल नैसर्गिक रूप से प्रदान करने हेतु रीवा को सदैव याद किया जायगा किन्तु यह भी सच है कि रीवा के लोग स्वयं विश्व के इस दुर्लभ वन्य प्राणी को देखने से देखने से वंचित थे। रीवा की जनता आदरणीय श्री राजेन्द्र शुक्ल की आभारी है कि उनके प्रयास से महाराजा मार्तंड सिंह व्हाईट टाइगर सफारी की स्थापना बेला व गोविन्दगढ़ रोड पर मुकुन्दपुर के पास स्थित माद जंगल में कराई गई और अब रीवा के लोग सफेद शेर को वहां देख सकते