भारत की भोली जनता को बहकाना जितना सरल है उतना ही कठिन है उसे समझाना। अनेक चालाक व्यक्ति, संस्था या शत्रुराष्ट्र अपनी कुटिल योजना के द्वारा भारत के लोगों को भटकाते व भरमाते रहे हैं। फाह्यान, ह्नेनसांग तथा मैगस्थनीज ने भारत में प्रवास के दौरान भले ही यह स्वीकार किया था कि तब यहाँ के घरों में ताले नहीं लगते थे, कोई अशिक्षित नहीं था, कोई दीनतावश भिक्षुक नहीं था, अर्धरात्रि में भी कोई स्त्री आभूषणों से सजी हुई निश्चिंत होकर अपने गंतव्य पर आ जा सकती थी तथा प्रायः सभी घरों से संध्या व हवन के मंत्रों की ध्वनि तथा यज्ञ का पावन धुऑं सहज ही देखा जा सकता था। महाराज अश्वपति, राजा विक्रमादित्य, आचार्य चाणक्य एवं महाराजा भोज के काल में भी भारत की सांस्कृतिक एवं सामाजिक व्यवस्था से वेदों के मूल संस्कार तिरोहित नहीं हुए थे। यहॉं तक कि उक्त वैभव व सुख समृद्धि से भरे भारत की प्रशंसा में प्रोफेसर फैन्ड्रिक मैक्समूलर भी अपने निजी पत्रों में इसी सत्य को स्वीकार करता था। यह वही दोगला व्यक्ति था जो वेदों से बढ़कर धरती पर कुछ नहीं है, ऐसा जानते हुए भी भारतीयों को मूर्ख बनाने के लिए वेदों को गड़रियों का गीत बताता रहा। वो जर्मन दुष्ट विद्वान् मैक्समूलर, जो ब्रिटिश सरकार के उकसावे व संरक्षण में भारत के वैचारिक विनाश में निरंतर संलिप्त रहा, वह अपने सम्पूर्ण परिश्रम के निष्कर्ष में भारत को धरती का स्वर्ग व सबसे महान् कहा करता था। उसकी लिखी "इंडिया: व्हाट कैन इट टीच अस ?" नाम की पुस्तक इस बात का प्रबल प्रमाण है। किन्तु, भारत की उदारवादी पावन संस्कृति व समाज व्यवस्था को क्षति पहुँचाने का जो क्रूर दुस्साहस यवन व मुगल शासकों ने किया उससे अधिक योजनाबद्ध तरीके से ब्रिटिश सरकार के नेतृत्व में हुआ।
भारतीय समाज को तोड़ने का प्रयास
अंग्रेज यह समझ गए थे कि जबतक भारत की समाज व्यवस्था को नहीं तोड़ा जाएगा तबतक इस सुदृढ़ भारतीय इमारत की नींव नहीं हिलेगी। अतः उन्होंने अनेक प्रपंच आरंभ किए, उन्हीं प्रपंचों में से एक है, भारत में आदिवासी शब्द का विवाद उत्पन्न करना। सर्वविदित है कि साम्राज्यवाद के अंधे धूर्त अंग्रेजों ने बड़ी निर्दयता व चालाकी से विश्व के अनेक देशों में विभिन्न कॉलोनियाँ बनायीं, वे जहाँ-जहाँ गए वहाँ-वहाँ पहले से रह रहे लोगों को अपने मनगढ़ंत शब्दों से परिभाषित करते गए तथा उन्हें नेटिव, ट्राइब आदि लिखते रहे। ऐसा ही उन्होंने भारत में भी करना चाहा। किन्तु, भारत तो वो देश है जहाँ सृष्टि के आरंभ से ही नगरवासी, ग्रामवासी, वनवासी तथा गिरी एवं कंदरा में रहने वाले लोग निरंतर आपसी प्रेम, सहयोग एवं सद्भाव के साथ रहते आए हैं। इसके उपरांत भी भारत में अंग्रेजों को ये खेल खेलना अच्छा लगा कि वनवासियों को आदिवासी या जनजाति की श्रेणी में रखकर, इन्हीं को मूलनिवासी भी प्रचारित कर देते हैं तथा नगर ग्राम के सुशिक्षित आर्यों को बाहर का आक्रान्ता बताकर प्रचार करते हैं , जिससे कालांतर में इन्हें आपस में लड़ाकर बर्बाद करना सरल होगा या इन्हें गुलाम बनाए रखने के लिए इस फूट का लाभ ले सकेंगे। वे यह भी सोचते थे कि जब हम यह प्रचारित कर देंगे कि आर्य बाहर से आकर राज्य कर रहे थे, तब पढ़े-लिखे काले अंग्रेज भारतीय भी यह सोचने लगेंगे कि जब हम बाहर से आकर शासन कर सकते हैं तो अंग्रेज क्यों नहीं? इस दुष्प्रचार व परिवर्तित मानसिकता से इनमें देशभक्ति कम होगी तथा स्वतंत्रता आंदोलन भी कमजोर पड़ेगा। इसी प्रकार अंग्रेजों द्वारा आर्य एवं द्रविड़ का बखेड़ा डालकर उत्तर-दक्षिण में फूट के बीज बोने का कुचक्र चलाया गया।
आर्यों की सुदृढ़ समाज व्यवस्था
संस्कृत साहित्य के आधार पर न केवल आर्यावर्त के लोग ही बल्कि मूलत: पूरी दुनियाँ आर्यों की ही वंशज है। इस संपूर्ण विषय को समझने के लिए महर्षि वाल्मीकि रचित रामायण ग्रंथ श्रेष्ठ प्रमाण है। जहाँ तिब्बत क्षेत्र (त्रिविष्टप) में रहने वाले राजा इन्द्र, कैलाश पर्वतवासी महादेव शिव, नदियों के तटों व जंगल में रहने वाले शृंगवेरपुर के राजा निषादराज गुह, नदी तट पर रहने वाले केवट, गृद्धकूट पर्वत, अरण्य व वृक्षों पर रहने वाले आर्य जटायु, भक्ति व समर्पण की प्रतिमूर्ति एवं वन में साधनारत शबरी, पर्वतों एवं वन में रहने वाले नर अर्थात् वानर-सुग्रीव, हनुमान आदि, गुफाओं में रहने वाली तपस्विनी स्वयंप्रभा, समुद्र तट पर साधना कर रहे सम्पाती, सामुद्रिक विद्या व शिल्प कला के जानकार नल-नील, आकाश गमन में सिद्ध हनुमान एवं अंगद आदि, गुफा-कंदरा या घोर जंगलों व आश्रमों में तपस्या करने वाले विश्वामित्र, अगस्त्य, अत्रि तथा भरद्वाज मुनि, नगरों में वसने वाले अयोध्या व मिथिलावासी इत्यादि सभी मूलतः आर्य ही हैं। इस प्रकार किसी को पहाड़ों में, किसी को नदियों के किनारे, किसी को सघन वन में, किसी को रेगिस्तान में, बर्फ में, पठार में, समुद्र के भीतर, समुद्र के किनारे, द्वीप में, पेड़ों पर, किसी को कच्चे मकान में तो किसी को महलों में, किसी को पशुओं के बीच, किसी को खुले खेतों या खौर में, किसी को बैलगाड़ियों या रथ में ही रहने का अभ्यास था तथा वे सभी स्थानविशेष की जलवायु एवं शारीरिक व मानसिक तप के अनुरूप वस्त्र आभूषण पहनते थे। ना कोई पूर्ण था ना कोई अपूर्ण था। एक-दूसरे के पूरक तो अवश्य थे किंतु सभी स्वाभिमानी व आत्मनिर्भर भी थे। इस विकसित सर्वोच्च सामाजिक व्यवस्था को तोड़ पाना बहुत कठिन था। धरती पर रहने वाले प्रत्येक व्यक्ति संपूर्ण धरती की रक्षा के लिए संकल्पबद्ध थे, इस बात का प्रमाण अथर्ववेद में भी निहित है । ये ग्रामा यदरण्यं या: सभा अधि भूम्याम् । ये संग्रामा: समितयस्तेषु चारु वदेम ते। अर्थात् चाहे कोई गाँव के हों या बड़ी सभाओं के सभासद, या किन्हीं समितियों के स्वामी हों, वे सभी सम्पूर्ण प्रकृति व धरती की रक्षा एवं संवर्द्धन के लिए संकल्पित हों, एकजुट हों। यही कारण था कि नगर-ग्राम तथा वन में रहने वाले सभी लोग विवाह आदि समारोहों, उत्सवों, त्योहारों में अनिवार्य रूप से आपस में मिलते एवं सदैव एक दूसरे की सहायता के लिए तत्पर रहते थे। वनवासी लोग जंगली कंद-मूल, फल तथा विभिन्न वनस्पतियों औषधियां से अपेक्षाकृत अधिक परिचित होने से गाँव एवं नगरों में रहने वाले वैद्यों तथा आम जन को शहद व औषधियाँ देकर उसके बदले विभिन्न ग्राम्यधान्य एवं वस्त्र आभूषण आदि भी प्राप्त करते थे।
अंग्रेजों द्वारा डाले गए विघटन के बीज
1857 की क्रांति के बाद अंग्रेज समझ गए थे कि भारत की समाज व्यवस्था अत्यंत सुदृढ़ है, इस समाज व्यवस्था को तोड़े बिना भारत को लंबे समय तक गुलाम नहीं बनाया जा सकता। यही कारण रहा कि उन्होंने समाज को टुकड़ों में बाँटने के उद्देश्य से लिए सन् 1860 में द सोसाइटीज रजिस्ट्रेशन एक्ट बनाया। प्रेम व सद्भाव से रहने वाले समाज में नफरत बढ़ाने के लिए नये-नये झूठ गढ़े गए। क्योंकि उनके हाथ में समाचार पत्र, यातायात व शासन के साथ-साथ शिक्षा का तंत्र भी आने लगा था, इसलिए वे शनैः-शनैः मनचाहा इतिहास प्रसिद्ध करने लगे। वे चाहते थे कि भारत की आने वाली पीढ़ी अंग्रेजों के द्वारा लिखे व लिखाए गए झूँठ से भरे, छल-कपट से सजाये गये साहित्य को सर्वोत्तम मानने लगें। यही कारण था कि लोगों की सोच की दिशा बदलने के लिए उन्होंने इसी एक्ट के आधार पर परंपरागत गुरुकुलीय शिक्षा प्रणाली, स्वदेशप्रेम के भाव व सामाजिक मूल्यों को तोड़ने में पर्याप्त सफलता पाई। उसी झूठ-प्रपंच व कपट पर आधारित साहित्य और शिक्षा के प्रभाव से वनवासियों को गाँव से लड़ाना, गाँव के लोगों में नगर वासियों के प्रति वैर व लालच उत्पन्न करना, जातिगत वैमनस्य पैदा करना आदि सम्मिलित था। परिणामस्वरूप इस प्रक्रिया से काले अंग्रेज पैदा होने लगे। जिनके द्वारा भारत में कुछ विचित्र नाम व विचारों का प्रचार भी किया गया, जैसे- आदिवासी, मूलनिवासी, आर्य एवं द्रविड़, मनुवादी तथा 'आर्य बाहर से आए' का मूर्खतापूर्ण कुतर्क भी।
आर्यसमाज ने दिया था मुँहतोड़ जवाब
तत्कालीन परिस्थितियों में अंग्रेजों के षड्यंत्र को समग्रता से समझने वाला 'आर्यसमाज' नाम का एक विशेष संगठन सन् 1875 में उदित हुआ। इसके संस्थापक महर्षि दयानंद सरस्वती द्वारा लिखे गए 'सत्यार्थप्रकाश' व 'ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका' ने ब्रिटिश षडयंत्रों से बचने के लिए मजबूत चट्टान का काम किया। इसी संस्था के व्यापक प्रभाव से नयी पीढ़ी धीरे-धीरे अपने पुरातन सामाजिक एवं सांस्कृतिक मूल्यों की ओर आने लगी थी तथा भारत में पुनः सामाजिक समरसता का निर्भीक वातावरण तैयार होने लगा। अंग्रेज इस संस्था को मिलिटेंट हिंदुइज्म कहते थे। इस संस्था के कारण बिछुड़े हुए लोग शुद्धि आंदोलन से तथा भटके हुए लोग शास्त्रार्थों के प्रभाव से अपनी मूल मुख्यधारा से जुड़ने लगे थे। तब पुनः नए-नए गुरुकुल खुलने लगे थे। विद्यालय के शिक्षक व छात्र आपसी भेदभाव को मिटाने के लिए उदाहरण बन रहे थे। आर्यसमाज ने बेमेल विवाहों के निवारण हेतु अन्तर्जातीय विवाह व विधवा पुनर्विवाह को अपनी कार्यसूची में प्रमुखता से रखा। जन्म आधारित अहंकार या कुंठा को त्यागते हुए पुरुषार्थ के आधार पर योग्यता बढ़ाने की स्वस्थ प्रतिस्पर्द्धा शुरू हो चुकी थी।
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद धीरे-धीरे वोटबैंक की राजनीति तथा विदेशी षड्यंत्रों के दुष्प्रभाव ने पुनः उन महान् शिक्षाओं की उपेक्षा कर समाज को टुकड़ों में बँटने दिया तथा जो फूट अंग्रेज भी न डाल पाए थे वह आपसी विघटन का पाप व अपराध वोट बैंक की कुत्सित राजनीति व कुछ बड़े नाम वालों ने किया। सौभाग्य की बात है कि भारत अब उदीयमान अवस्था में है। भारत का शीर्ष नेतृत्व अपने सांकृतिक मूल्यों के प्रति आस्थावान व संकल्पित है। अतः विश्वव्योम में भारत फिर चमकेगा, ऐसा मेरा विश्वास है।
(लेखक वॉशिंग्टन डीसी में भारतीय संस्कृति शिक्षक हैं।)