हमारी अखंड-चेतना का सनातन स्वरूप - दीपावली

आज दिवारी मंगलचार....

Update: 2020-11-14 01:45 GMT
अंधकार का प्रतिरोधकृदीपावली
मधुकर चतुर्वेदी

स्वदेश डेस्क। प्रकाश में चंचल मन को स्थिर करने की करने की अमोघ शक्ति है, इस तथ्य को सभी मानते हैं। अंधकार का प्रतिकार, अंधकार का प्रतिरोध, अंधकार के विरुद्ध जूझने का संकल्प, अपने लघु प्रयासों से उजाला लाने के संकल्प का उत्सव ही 'दीपावली' है। दीपावली के उत्सव का नायक है एक छोटा सा 'मिट्टी का दीया'। यह मिट्टी का दिया एक विराट संकल्प है, एक ललकार है कि अधंकार चाहे कितना भी गहरा क्यों न हो, जीवन-संस्कृति का सूर्य हमारे बौद्धिक क्षतिज को प्रकाशित करता रहेगा। देखा जाए तो रात्रि प्रतिदिन आती है। अमावस्या भी प्रत्येक माह आती है। पर दीपावली वर्ष में एक बार आती है और हर बार एक निश्चित और विशेष संदेश लेकर आती है। वैश्विक महामारी कोरोना के बीच इस बार भी दीपावली विशेष संदेश लेकर आयी है। संस्कृति के उत्सव में अंधेरा तो है लेकिन, राष्ट्ररक्षा, सामाजिक समरसता का सूर्य अनुपस्थिति नहीं है। अंधकार के बीच प्रकाश के सर्वत्र आगमन से मन आनंदित है और महामारी के अंत के लिए दीपों को जलाने के लिए उत्साहित मन से सहसा स्वर निकल रहे हैं कि 'आज दिवारी मंगल चार। ब्रजयुवति मिल मंगल गावत चोक पुरावत आंगन द्वार।। मधु मेवा पकवान मिठाई भरि भरिलीने कंचन थार। परमानंददास को ठाकुर पहेेरे आभूषण सिंगार........'

राष्ट्र की आत्मा है दीपोत्सव

प्रकाश पर्व दीपोत्सव राष्ट्र की आत्मा हैं। दीपावली हमारी अखंड-चेतना का सनातन स्वरूप हैं। देशकाल एवं परिस्थितियों के अनुसार दीपावली उत्सव में परिवर्तन दिखायी देता है। परंतु इसकी मूलभूत विशेषताएं अक्षुण्ण ही रहती है। क्योंकि व्यक्ति का विकास उत्सव में और उत्सव का विकास व्यक्ति में निहित रहता है। किसी भी राष्ट्र की नागरिक शिक्षा और उसके सार्वजनिक जीवन में उत्सवों का महत्वपूर्ण स्थान माना जाता है। उसके द्वारा मनुष्य अपने मानसिक एवं बौद्धिक क्षितिज को व्यापकता प्रदान करता है। इसलिए माना जाता है कि मानव जीवन में क्या स्थायी है, क्या अस्थायी इसका निर्णय हम उत्सवों के स्वरूपों द्वारा कर सकते हैं। दीपावली उत्सव का स्वरूप आज इतना विस्तृृत है कि विश्व के अध्ययन का विषय बन गया है।

कुछ विशेष है दीपावली की रात्रि

भारतीय उत्सव परंम्परा में तीन प्रकार की रात्रियों कालरात्री, महारात्री एवं मोहरात्री का अपना अलग ही स्थान है। इन रात्रियों में हम प्रकृति के साथ उत्सव को मनाते हैं। कालरात्री होली पर्व पर, महारात्री शिवरात्री पर्व पर तथा मोहरात्री दीपावली पर दृश्य होती है। ब्रज मंे मोहरात्री शरद एवं दीपावली दोनांे संयुक्त हैं। इन तीनांे महारात्रियों का महत्व इसलिये भी है कि ये पर्व दिन के उजाले में न होकर रात्री में प्रकाश-जागरण के साथ मनाने की परंम्परा है। जैसा कि सूरदास जी ने दीपावली के पद में गाया भी है 'आजदिपत दिव्य दीममालिका। मानो कोटि रवि कोटि चंद छबि विमल भई निशि कालिका'।

ब्रज में एक मास तक आयोजित होगी है दीवाली

हमारी भारतीय उत्सवीय परंम्परा की ये मौलिकता है कि सभी पर्व प्रकृति को केन्द्र मे रखकर उसी के साथ मनाये जाते है। सभी उत्सव प्रकृति के लिये है और प्रकृति उत्सवो के लिये है। इसलिए दीपावली प्रकृति का सिरमौर है। ब्रज में दीपावली वैष्णव व शैव दोनों के लिए संयुक्त है। क्योंकि यहां दीपावली का त्यौहार पूरे एक मास तक मनाया जाता है। जिसका प्रारम्भ हिन्दू पंचांग के अनुसार कार्तिक मास से होता है। कार्तिक के बारे में कहा गया है-मासानां कार्तिकः श्रेष्ठो देवानां मधुसूदनः। तीर्थ नारायणख्यं हि त्रिययं दुर्लभ कलौ। इसका वैज्ञानिक तथा खगोलीय आधार यह है कि जब सूर्य तुलाराशि में प्रवेश करता है, तभी कार्तिक मास आता है। सूर्य की राशि स्थितियों के अनुसार ही यह समय सूर्य के उत्तरायण से दक्षिणायन का होता है और सूर्य के कर्क राशि पर आने पर रितु परिवर्तन अर्थात दक्षिणायन होता है साथ ही कार्तिक मास में भगवान विष्णु के शयन से प्रबोधन तक मनाये जाने वाले चातुर्मास्य का समापन होता है।

गौ तथा कृषि उन्नति की प्रतीक ब्रज की दीपावली

कार्तिक मास में तीन प्रमुख कर्म है पहला वनपूजन, तुलसी द्वारा दूसरा देवपूजन गाय द्वारा तथा तीसरा जल सोत्रों पर दीपदान करना यह इसका मुख्य कर्म है। तुलसी को आयुर्वेद में रोगहारक कहा गया है। गाय में सभी देवताओ का मूल होने के कारण पूरे मास गाय से विषयक तीन पर्व गोवत्स द्वादशी, गोर्वधन तथा गोपाष्टमी मनायी जाती है। चूंकि गाय आराधना के साथ ही कृषि का भी अभिन्न अंग है। इसके अमृतमय दुग्ध से आयु की वृद्वि तथा कृषि की उन्नति होती है। यह तीनों कर्म हमें प्रकृति से जोडते है और उसके प्रति सम्मान की शिक्षा भी देते हैं। इसी कार्तिक मास की अमावस्या को प्रकाश पर्व दीपावली मनायी जाती है।

महाराज पृथु देते हैं निमंत्रण

ब्रज में दीपावली का प्रारंभ धनतेरस से करते हुए प्रातः मंदिरों के चैक में मंडल बनाकर उस पर वेदिका की पूजा होती है। रंगोली व बंदरवान से द्वारो को सजाकर सायं दीपदान किया जाता है। भविष्यपुराण, स्कन्धपुराण, पद्यपुराण, श्रीमद्भागवत और रामायण में इसकी अगल-अगल मान्यताएं हैं। कही इसे महाराज पृथु द्वारा पृथ्वी का दोहन कर देश को धन-धान्य से समृद्व बना देने के उपलक्ष्य में, कहीं पर लक्ष्मीं जी के समुद्रमंथन में से प्रगट होने के कारण, कही पांण्डवो के वनवास से लौटने पर तो कही श्रीराम के अयोध्या आगमन से जोडकर मनाने का वर्णन मिलता हैै। परन्तु इस पर्व का आनन्द प्राण ब्रजमण्डल है। 'ब्रज की सोभा दीपन सौ, दीपन की सोभा गोवर्धन सौ'। ब्रज की दीपावली के सौंदर्य से अकबर व जहांगीर जैसे शासक भी अछूते नहीं रहे। वह भी दीपदान करते ब्रज दीपावली का आस्वादन करते रहे।

ब्रज में लक्ष्मी पूजन से पहले श्रीगोवर्धनाथ जी के पूजन का चलन

दीपावली पर ब्रज के पुराने वैष्णव घरो में महालक्ष्मी के बजाय गोवर्धननाथ श्रीकृष्ण के पूजन का चलन है। इस दिन ब्रज के मन्दिरों में आराध्यों को सोने चाॅदी की हटरियों मे विराजमान करा कर सफेद जरी के वस्त्रो के यथा माणिक, मूंगा, पन्ना, हीरा इत्यादि अलंकरणों से श्रंगार होता है। सुंन्दर केलों के खंभ, पुष्पों की अट्टालिकाऐं, वंदरवान तथा सोने चांदी, कांच की हटरियों में विराजे प्रभू के दर्शन होते है। दीपावली के दिन ही गौशालाओं से गाय मन्दिर में आती है तथा उनका सामूहिक पूजन होता है। जिसे कान्ह जगाई कहते हैं। इसका रागरस श्रेष्ठ उल्लेख अष्टछाप के कवियो ने खूब किया है- दीपदान दे हटरी बैठे, नवललाल श्रीगोवर्धन धारी।

पांच दिनों तक गूंजते हैं ध्रुपद गायन के स्वर

ब्रज की प्राचीन अट्टालिकाओं में जगमगाते दीपों की दीपों की दीपमालिका भवन, आंगन, वन, सरिता तथा आकाश में प्रकाश उत्पन्न कर देती है। साथ ही केदार, गौरी बिलावल, कल्याण, सारंग रागों का सुमधुर ध्रुपद गायन चारो ओर रस समुद्र को उत्पन्न कर देता है। रागों के स्वर पर मृदंग की थाप मानो मोहरात्री का आलिंगन कर रही हो, इस बीच भगवती महालक्ष्मी का पृथ्वी पर गमन होता है। दीपावली की रात्री में ही पांसे खेले जाते है। पांसे खलने के पद भी गाए जाते है। 'पांसे खेलत है पिय प्यारी, पहलौ दाव पडों श्यामा कौ तब नख बेसर हारी'। मंदिरों में कपड़े की चैसर पर चांदी के पासें श्रीविग्रहों के सामने रखकर प्रिया-प्रियतम को रिझाया हुए गुण, माधुर्य को प्राप्त करते हुये अपने निगुणों की निवृति करी जाती है।

वनविहार कर दीपदान के साथ समापन

दीपोत्सव के अंत में वनविहार, जलविहार तथा यमुना-गंगा और पवित्र नदियों व जल सोत्रों पर दीपदान किया जाता है। जल पर दीपों के बिम्ब की शोभा से मानो सहस्त्र नक्षत्रों का धरती पर आगमन सा हुआ प्रतीत होता है। दीपावली के चतुर्थ दिन गोवर्धन पूजा की जाती है। गोबर से गोवर्धननाथ की आकृति का बना कर शाक, फल पुष्पों से सजाकर पूजन किया जाता है। मन्दिरों में इसे अन्नकूट उत्सव कहा जाता है। रतनमण्डप में एक मन चावल के भात शिखर पर विभिन्न पकवानों, खीर दूध से बने मिष्ठानों से आराध्य को आरोग कर उत्सव मनाया जाता है। इसमें भी भोग के साथ राग की प्रधानता रहती है। अन्तिम पांचवे दिन भाईदूज का प्रेम भरा पर्व होता है। इस दिन यमुना स्नान का बहुत महत्व है। बहनों द्वारा भाई के तिलक लगाकर मंगलकामना के साथ सभी भारतीय ग्रहस्थ सामुहिक पर्व मनाते हुए अगले वर्ष के दीपावली उत्सव के मनोरथ को प्राप्त होते है। सत्यता तो यही है कि इनता राग रंग, आनन्द, इनती विविधताऐ इतनी भावनाऐ सम्पूर्ण विश्व मंे भारत के अलावा कही नहीं मिलती। इसीलिये कहा जाता है- 'धन्या तु भारतभूमिः'।................

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