बाबूडम और नागरिकबोध के बीच आत्मनिर्भर की चुनौती

डॉ अजय खेमरिया

Update: 2020-05-15 10:52 GMT

स्वदेश वेबडेस्कl  मोदी सरकार ने कोविड संकट से उपजी आर्थिक चुनौतीयों के बीच "आत्मनिर्भर भारत"की जो पहल की है उसे जमीन पर उतारने के लिए दो मोर्चों पर समानन्तर लड़ाई लड़नी होंगी।पहली नागरिकबोध औऱ दूसरी सरकारी मशीनरी की जड़तामूलक सामंती मानसिकता।प्रधानमंत्री स्पष्ट कर चुके है कि स्वदेशी का आशय किसी के बहिष्कार से नही है जाहिर है वैश्विक आर्थिक समझौतों के बीच इस आत्मनिर्भर भारत के उद्देश्य में कोई अंतर्विरोध नही है।दुनियां की मजबूत आर्थिक महाशक्तियों ने अपनी आत्मनिर्भरता की बुनियाद पर ही सशक्तता को अर्जित किया है।

20 लाख करोड़ का आर्थिक पैकेज सरकार की प्राथमिकता को स्वयंसिद्ध करने के लिए मजबूत प्रमाण है।इस' स्वदेशी संकल्प'के सामने सबसे पहली चुनौती है भारतीय लोकचेतना में नागरिकबोध की न्यूनता का है।जापान का उदाहरण हमारे सामने है द्वितीय विश्वयुद्ध की विभीषिका में बर्बाद हो चुका यह मुल्क आज सम्पन्नता और प्रौधोगिकी के मामले में नजीर है।जापान आज दुनियां की तीसरी आर्थिक महाशक्ति है तो इसके पीछे उसके नागरिकों की राष्ट्रीय चेतना ही आधार है।जापानी चरित्र में राष्ट्रीयता और अनुशासन का प्रधानभाव ही इस मुल्क को बगैर प्राकृतिक संसाधनों के बाबजूद तकनीकी,उत्पादन से लेकर हर मोर्चे पर सिरमौर बनाने वाला निर्णायक तत्व है।

सामंती जीवनशैली का अभ्यस्त रहा यह देश आज जबाबदेह नागरिक प्रशासन के मामले में भी अद्वितीय है।सवाल यह है कि हम भारतीय इस मोर्चे पर कहाँ खड़े है?जापान भी भारत की तरह करीब बारह सौ साल गुलामी में रहा है लेकिन आज लगभग 70 साल में यह वैश्विक ताकत बन गया। निसन्देह हमने भी अपनी विविधता के बाबजूद बड़ी उपलब्धियों को अर्जित किया है लेकिन यह भी तथ्य है कि हमें आर्थिक, सामाजिक मोर्चे पर आज भी बहुत कठिन चुनौतीयों से जूझना पड़ रहा है।कोरोना संकट ने हमारी आत्म क्षमताओं को तो प्रमाणित किया लेकिन शासन और नागरिकबोध के मोर्चे पर बहुत ही निराशाजनक तस्वीर उकेर कर रख दी।नागरिकबोध और नागरिक प्रशासन दोनों ही आज विफलता के दस्तावेज लेकर खड़े है।स्वदेशी का मंत्र असल में हमारी सामूहिक चेतना में राष्ट्रीय तत्व की स्थाई अनुपस्थिति को प्रमाणित करता है।

जिस आधुनिकता का अबलंबन हमने पिछले कुछ दशकों में किया वह हमारी परम्परागत सहअस्तित्व की शाश्वत जीवनशैली के विपरीत है।वस्तुतः नागरिक को उपभोक्ता बनाने और उसे लोकतंत्र के नाम पर बरगलाने की कुटिल चाल का शिकार भारत सर्वाधिक हुआ है।नई आर्थिक नीतियों के नाम पर दो बुनियादी काम करीने से किये गए है पहला नागरिक की जगह हर आदमी को वोटर और उपभोक्ता बनाना और दूसरा गरीबी औऱ अमीरी की खाई को गति देना।यह पूंजीवाद के नए वैश्विक अवतार उदारीकरण, वैश्वीकरण, नवउदारवाद और क्रोनी केपेटिलिज्म के आवरण में हुआ।आज इन्ही नीतियों के ने भारत को संकट के बाबजूद अपनी जड़ों की ओर वापसी का आह्वान किया है।

प्रधानमंत्री मोदी ने लोकल के लिए वोकल का जो आग्रह किया है असल में वह भारत की विश्व बंधुत्व और सहअस्तित्व की सुचिंतित जीवन दृष्टि की पुनर्स्थापना का ही आह्वान है।यह केवल सरकार के भरोसे नही नागरिक संकल्प की दृढ़ता से ही साकार हो सकता है।कोरोना संकट में हमने अपनी उपभोक्ता केंद्रित जीवन शैली को आत्मप्रबंधित करके बताया है।क्या यह संभव नही की हम अपनी जीवनशैली में इसे स्थाई तत्व के रूप में आत्मसात करे। स्वदेशी का बुनियादी तत्व सह अस्तित्व ही है भारत की प्राचीन आत्मनिर्भर आर्थिकी में 64 कलाएं विधमान थी जो एक दुसरे को आर्थिक सामाजिक सुरक्षा उपलब्ध कराती थी।आज बदले परिदृश्य में हम हमारी कम्पनियों के उपलब्ध उत्पाद अपनाकर सहअस्तित्व को सुदृढ करने वाली इन 64 आर्थिक कलाओं को जीवंत कर सकते है।

आत्मनिर्भर भारत के लक्ष्य में दूसरी बड़ी बाधा भारतीय प्रशासनिक तंत्र की औपनिवेशिक जड़ता है।सरकार को इस मोर्चे पर अत्यधिक कठोर निर्णयन की आवश्यकता है।तमाम आर्थिक पैकेज बेमानी और निष्फल होंगे जब तक डिलीवरी सिस्टम दुरस्त नही होगा।तथ्य यह है कि मौजूदा ढांचा सड़ चुका है वह यथास्थितिवाद से आगे नही सोचता है।जड़ता,भर्ष्टाचार, लालफीताशाही इस सिस्टम की रोम रोम में समा चुका है।मध्यम और लघु उधोगों की बर्बादी में जितना योगदान आर्थिक नीतियों का है कमोबेश उतना ही अफ़सरशाही का।यूपी के मुख्य सचिव और बाद में देश के कैबिनेट सचिव रहे टीएसआर सुब्रमण्यम की किताब "जर्नीज थ्रू बाबूडम एन्ड नेतालैंड "में यूपी की औधोगिक बर्बादी के सप्रमाण किस्से उपलब्ध है।योगी राज में आरम्भ "एक जिला एक उत्पाद"योजना असल में बाबूशाही के कलुषित कारनामों को समेटने की कोशिशें ही है।बाबूशाही के चरित्र को समझने के लिए

हांगकांग की एक प्रतिष्ठित कंसल्टेंट फर्म "पॉलिटिकल एन्ड इकोनॉमिक रिस्क कंसल्टेंसी लिमिटेड''की वैश्विक व्यूरोक्रेसी रैंकिंग पर नजर डालनी होगी।भारत की ब्यूरोक्रेसी को 10 में से 9.21वे स्थान पर रखा गया है।यानी सबसे बदतर।

वियतनाम 8.54,इंडोनेशिया 8.37,फिलीपींस7.57चीन7.11,सिंगापुर2.25,हांगकांग3.53,थाईलैंड5.25जापान5.77

दक्षिण कोरिया 5.87,मलेशिया5.84रैंक पर रखे गए है।इस रपट में भारत की अफसरशाही को सबसे खराब रैंकिंग दी गई है। जाहिर है सरकार प्रायोजित किसी भी पैकेज को परिणामोन्मुखी नही बनाया जा सकता है जब तक इस अजगरफॉन्स का शमन नही हो पाता।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की जनस्वीकृति लगातार प्रमाणित हो रही है उनके स्वदेशी आह्वान के साथ अधिकांश भारतवासी खड़े होंगे ही।यह भी तय है कि लोग लोकल के वोकल बनने में भी पीछे नही रहेंगे लेकिन बड़ा सवाल बाबूशाही का तो सामने खड़ा ही रहेगा जो इस मिशन मोड़ का बुनियादी शत्रु है।क्या नागरिकबोध के समानन्तर नागरिक प्रशासन को भी पुनर्स्थापित किये जाने की चुनौती को स्वीकार करेंगे पीएम। 

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