चंबल की लाडले रत्न : दादा शंभूनाथ आजाद, बिस्मिल और गेंदालाल

(डॉ. शाह आलम राना)

Update: 2022-08-13 12:21 GMT

चंबल को शौर्य की जननी कहा जाता है। चंबल घाटी ने ऐसे तमाम मुक्ति योद्धा इस देश को दिए हैं। आगरा जनपद की बीहड़ों से भरी एक तहसील का नाम है- बाह। बाह में स्वतंत्रता संग्राम में अपने दौर के सबसे बड़े गुप्त क्रांतिकारी दल 'मातृवेदी' के कमांडर-इन-चीफ गेंदालाल दीक्षित का जन्म स्थान भी है जिन्होंने चंबल के बागी सरदारों को क्रांति का सिपाही बना दिया था। इसी तहसील में क्रांतिकारी राम प्रसाद 'बिस्मिल' का ननिहाल भी है। आगरा जनपद मुख्यालय से सौ किमी दूरी पर इसी तहसील में यमुना नदी के तट पर बीहड़ों के बीच कचौरा गांव बसा हुआ है। गांव के ही एक गरीब किसान परिवार में मद्रास क्रांति के महानायक शंभूनाथ आजाद का जन्म 26 जनवरी, 1908 को हुआ था। जब वे आठ वर्ष के थे तब इनके पिता शंकरलाल शर्मा का कलकत्ता में एक मोटर दुर्घटना से देहांत हो गया था। अचानाक पति की मौत के आघात को सहन न कर सकने से महज छह महीने बाद ही शंभूनाथ की माता श्रीमती दुलारी देवी भी चल बसीं। अनाथ शंभूनाथ आजाद को उनके चाचा सूरजपाल ने सहारा दिया और उनकी प्राइमरी शिक्षा गांव कचौरा घाट में पूरी हुई। किशोर शंभूनाथ आजाद सत्रह वर्ष की आयु में क्रांतिकारी आंदोलन में कूद पड़े।

सन 1929 में अमृतसर में डॉ. सैफुद्दीन किचलू तथा डॉ. सत्यपाल की गिरफ्तारी के विरोध में हड़ताल कराते शंभूनाथ आजाद भी पकड़ लिये गये। इस जुर्म में आजाद को एक सप्ताह की सजा देकर लाहौर की बोर्स्टल जेल भेज दिया गया। पहली जेल यात्रा से एक सप्ताह बाद जब छूटकर आये तो पुनः 'नौजवान भारत सभा' में और ज्यादा सक्रिय रूप से कार्य करने लगे। अमीरचंद गुप्त और रतनलाल भाटिया के जरिये अनुशीलन समिति, पंजाब के संगठनकर्ता दयानंद डी पटेल ने आजाद को अनुशीलन समिति से जोड़ लिया।

अंग्रेजों के खिलाफ जरूरत पड़ने वाले हथियारों के सिलसिले में शंभूनाथ आजाद अपने साथियों के साथ दिल्ली आये। दिल्ली से बुलंदशहर जाने के लिए स्टेशन पर पहुंचे। दिसंबर 1930 में कड़ाके की ठंड थी। पीछे सीआईडी इंसपेक्टर कर्म सिंह लग गया। शंभूनाथ आजाद और इन्दर सिंह गढ़वाली की जमुना ब्रिज स्टेशन पर तलाशी लेने पर भरा हुआ पिस्तौल जेब से बरामद हुआ। पुलिस की हिरासत में दोनों क्रांतिकारियों को कठोर यंत्रणा देने के बाद आर्म्स एक्ट में मुकदमा चला। आजाद को तीन वर्ष और इन्दर सिंह को सात वर्ष कारावास की सजा मिली। लाहौर की बोर्स्टल जेल में सजा काट रहे आजाद को डकैती के एक मुकदमे के लिये अम्बाला ले जाया गया। जहां पर 'मनौली कांड' का मुकदमा चला। इस मुकदमे के अन्य अभियुक्त थे- मंशा सिंह, रामचन्द्र और नरेन्द्रनाथ पाठक। इस केस का फैसला हुआ तो मंशा सिंह को फाँसी तथा शेष दो को दस-दस वर्ष के कारावास का दंड मिला। मंशा सिंह को सन् 1931 के अन्तिम दिनों में दिल्ली की पुरानी जेल में फांसी दे दी गई।

लाहौर की बोर्स्टल जेल में आजादी के दीवाने हजारा सिंह, खुशीराम मेहता, नित्यानन्द वात्सायन और शंभूनाथ आजाद गुप्त तरीके से 'सिविल एण्ड मिलिट्री गजट' पढ़ते थे। एक दिन इस अंग्रेजी दैनिक में मद्रास गवर्नर का भाषण छपा। जिसमें कहा गया था कि मद्रास में न क्रांतिकारी गतिविधियां हैं और न उनके रहते कभी पनप सकती है। यह पढ़कर जेल के सींखचों में कैद क्रांतिकारियों का खून खौल गया और उन्होंने गवर्नर की यह चुनौती स्वीकार करते हुए संकल्प किया कि जेल से छूटते ही मद्रास में ऐसा धमाका होगा कि इंग्लैंड थर्रा जाएगा। जेल से सबसे पहले मुक्त हुए नित्यानन्द वात्स्यायन (हिन्दी के प्रसिद्ध लेखक सच्चिदानन्द हीरानन्द वात्स्यायन अर्थात अज्ञेय के छोटे भाई)। हजारा सिंह ने नित्यानन्द से मद्रास में क्रांतिकारी दल संचालित करने का वचन दिया कि जेल से मुक्त होते ही हम सभी साथी मद्रास जाएंगे।

सन् 1932 में बोर्स्टल जेल लाहौर से मुक्त होकर अमृतसर में जलियांवाला बाग के निकट एक मकान रोशनलाल मेहरा द्वारा किराये पर ले उसी मकान में मद्रास जाने का खाका बना। शंभूनाथ आजाद, रोशनलाल मेहरा, गोविंदराम बहल, हजारा सिंह, छविदत्त वैद्य और सीतानाथ डे मौजूद थे। मद्रास जाने वाली पहली टोली में सीतानाथ डे और रोशनलाल मेहरा का नाम था और दूसरे जत्थे में हजारा सिंह, गोविन्दराम, इन्दर सिंह, खुशीराम मेहता और बच्चूलाल के नाम थे। तय हुआ था कि क्रान्तिकारी कार्यों के लिए पैसा इकट्ठा करने के लिए डकैती नहीं डाली जाएगी। काकोरी, मनौली, अम्बाला की डकैतियों के अनुभव ने सीख दी थी कि इन डकैतियों ने क्रान्तिकारियों को मुख्य संघर्ष से दूर हटाकर जनता में उनके प्रति कई तरह के भ्रम उत्पन्न करने की परिस्थिति बनाई थी। मद्रास जाने के लिये पैसों की आवश्यकता थी। तब रोशनलाल मेहरा ने अपने घर से चांदी के छह हजार रुपये चुराकर शंभूनाथ आजाद को सौंप दिये।

शंभूनाथ आजाद ने मद्रास से उटकमंड पहुंचकर नित्यानन्द वात्सायन की खोज की तो पता लगा कि सरकारी दबाव के कारण नित्यानन्द को उनके पिता ने घर से निकाल दिया था। बड़ी कठिनाई से नित्यानन्द मिले और फिर मद्रास लौटकर रायपुरम सर्किल की आदम स्ट्रीट स्थित एक मकान में ठिकाना बना। क्रांतिकारियों के पास जो विस्फोट पदार्थ थे उनको मेलापुरम क्षेत्र के एक मकान में रख दिया।

28 अप्रैल, 1933 को दोपहर 12 बजे शंभूनाथ आजाद ने महज अपने 6 साथियों के साथ जान पर खेलकर 80 हजार रुपये ऊटी बैंक से लूटने में सफल हुए। ऊटी बैंक कांड में 25 साल तथा मद्रास सीटी बम केस में 20 साल के काले पानी की सजा शंभूनाथ आजाद को हुई। दोनों सजाएं साथ-साथ चलने की अपील भी हाईकोर्ट ने खारिज कर दी। क्रांतिकारियों अलग-अलग जेलों में खूब यंत्रणाए दी जाने लगी तो शंभूनाथ आजाद ने मद्रास सेंट्रल जेल में 6 महीने अनशन किया। फिरंगी सरकार ने 1934 में उन्हें नारकीय सेल्यूलर जेल भेज दिया। इस दौरान जेल में कई क्रांतिकारी या तो पागल या शहीद हो गए।

1937 में अंडमान में समस्त चार सौ राजबंदियों ने तीन महीने तक आमरण अनशन किया। इससे पूरे देश में माहौल बना। दबाव में अंडमान सेल्यूलर जेल से विभिन्न प्रांतो के क्रांतिकारियों को 1938 में वापस भेज दिया गया। 1938 में शंभूनाथ आजाद रिहा हुए। उन्हे 1942 में बरेली की नारकीय जेल के गड्ढा बैरक में बंद कर दिया गया। जहां 1943 में शंभूनाथ आजाद को भूख हड़ताल शुरू करने के एक सप्ताह बाद 20-20 बेंत की सजा देने के साथ ही कलम 59 के तहत सजा बढ़ा दी गई। भूख हड़ताल के दौरान शंभूनाथ आजाद के सभी दांत तोड़ दिये गए। लिहाजा उन्हें ड्रायफ्लूरसी से शरीर जर्जर हो गया। सन् 1946 में फतेहगढ़ सेंट्रल जेल से रिहा होने पर जेल गेट पर ही तुरंत डीआईआर में नजरबंद कर लिये गये। फिर केंद्र में अंतरिम सरकार बनने पर रिहा हुए। देश की कई कुख्यात जेलों में कठिन जीवन के बीच इतिहास, राजनीति शास्त्र, दर्शन शास्त्र और अंग्रेजी का अध्ययन किया।





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