नईदिल्ली। भारत की स्वाधीनता की प्राप्ति देश के सहस्राब्दियों पुराने इतिहास में एक प्रस्थान विंदु जैसा है जब एक स्वतंत्र देश की राजनैतिक सत्ता देश की जनता के हाथों में सौंपी जाती है. विदेशी पराधीनता से मुक्ति कई पीढियों के बलिदान और त्याग से प्राप्त हुई . देश-यज्ञ में समाज के विभिन्न वर्गों ने आहुति डाली थी और महात्मा गांधी के नेतृत्व में बहुलांश में एक अहिंसक युद्ध लड़ा था जो स्वराज की स्थापना को समर्पित था . 'स्वराज' स्वयं में देश को नए ढंग से परिभाषित करने की व्यवस्था थी जिसके लिए स्वाधीनता एक माध्यम या युक्ति थी. यह परिभाषा विविधताओं और बहुलताओं से भरे भारत के सामाजिक, आर्थिक, आध्यात्मिक और राजनैतिक उन्नयन के रूप में थी जिसके लिए स्वाधीनता एक अवसर के रूप में ग्रहण की गई।
महात्मा गांधी के रचनात्मक कार्यक्रम में समाज के बहुमुखी और समावेशी विकास के लिए प्रतिबद्धता थी ताकि विदेशी शासन की लूट और मानसिक गुलामी से पार पाया जा सके और मानवोचित विकास का मार्ग प्रशस्त हो. गांधी जी ने ' हिंद स्वराज ' में भारतीय सभ्यता और पश्चिमी सभ्यता को ले कर चिंतन किया था और आधुनिकता की कटु लोचना की थी। उनके निष्कर्ष मनुष्य के उन संकटों का पूर्वाभास दे रहे थे जिन्हे एक शताब्दी बाद आज का विश्व बड़ी शिद्दत से अनुभव कर रहा है और उनसे निपटने के उपाय पाने के लिए छटपटा रहा है. गांधी जी ने अस्तित्व की विराटता का अनुभव किया था और समग्रता, पारस्परिकता और जीवनोन्मुखी दृष्टि से विश्व मानवता के लिए अहिंसा ( प्रेम) के द्वारा सत्य की ओर आगे बढने का मार्ग ढूढा था और चलने की कोशिश की. विदेश भ्रमण के बाद भी भारत उन्हें बेहद आकृष्ट करता था . उन्हीं के शब्दों में ' भारत में वह सब कुछ विद्यमान है जो एक मनुष्य द्वारा चाही गई अधिकतम आकांक्षा होगी'. साथ ही वे यह भी कहते थे कि भारत माता उनको आध्यात्मिक पोषण देती है.
स्वाधीनता स्वराज के लक्ष्य की सिर्फ आंशिक पूर्ति थी क्योंकि अनेक क्षेत्रों में हमारी स्थिति दुर्बल थी . साथ ही बाह्य नियंत्रण से मुक्ति और स्वयं अपने निर्णय के आधार पर देश को गतिशील करने की जिम्मेदारी भी थी. आज जब स्वतंत्रता मिले लगभग तीन चौथाई शती बीत रही है यह विचार सब के मन में उठता है कि देश ने क्या किया ? कैसे जिया ? इन प्रश्नों पर गौर करना जरूरी है ताकि आगे के रास्ते पर चलना सहज और सार्थक हो सके. व्यक्ति के जीवन की ही तरह समाज और देश का जीवन भी होता है जिसमें खोने और पाने के साथ संजोने का भी काम होता रहता है और हम यात्रा के बीच पुनर्नवीन होते रहते हैं. इसमें सामाजिक चेतना के स्तर पर भावनाएं भी सक्रिय होती हैं जो अस्मिता को रचती हैं और देश के मिजाज को दर्शाती हैं. अब तक हुए आम चुनावों को यदि संकेत के रूप में लें तो जनता के मिजाज में अब तक हुए बदलावों का अनुमान लगाया जा सकता है. सत्ता में भागीदारी की प्रवृत्तियों में विकेंद्रीकरण और विभिन्न पृष्ठभूमि के लोगों की उपस्थिति से राजनैतिक कोलाहल बढा है. साथ ही यह भी अनुभव किया जा रहा है कि हममें से बहुतों ने स्वतंत्रता की प्राप्ति को लक्ष्य या उपलब्धि मान कर उसका उपभोग करना शुरू कर दिया जिसने जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में लोगों को विपथगामी बना दिया. कर्तव्य की जगह अधिकार के ऊपर अधिकाधिक बल देने की प्रवृत्ति ने अनैतिक आचरण को बढावा दिया. अधिकार तथा सत्ता के दुरुपयोग और आर्थिक कदाचार के बड़े-बड़े मामले तथा राजनैतिक दलों की उठा पटक जिनकी संख्या बढती रही है, समाज की नैतिक जरूरतों को रेखांकित कर रहे हैं. संसाधनों के लिए स्पर्धा और शांति के उपायों की जगह संघर्ष के तरीकों का उपयोग बढता गया है. इन सबसे विकास की प्रक्रिया में असंतुलन का संकेत मिलता है।
देश को ले कर विगत अनेक दशकों में जिस तरह के बौद्धिक विमर्श का प्रचलन रहा उसमें भारतीय, भारतीय संस्कृति, लोक-जीवन, गांव, देशज कला और साहित्य आदि हाशिए पर चले गए और उनकी जगह आधुनिकता (यानी पश्चिमाभिमुख होना!) का पक्षधर होना और परम्परा (यानी स्वदेशी!) को त्याग कर विज्ञान और प्रौद्योगिकी और उसी के साथ पश्चिमी सभ्यता और उसकी ज्ञान परम्परा को प्रासंगिक मानना प्रमुख होता गया. हम देश से कटते से गए और 'स्वदेशी' तथा 'स्वराज' प्रचलित फैशन से बाहर होते गए. स्थानीय संस्थाएं, लोक सम्पदाएं, लोकाचार और देशी बीज, वनस्पति सब कुछ वैश्विक (ग्लोबल) के आकर्षण आगे फीका पड़ता गया. इसकी जगह पश्चिमी ज्ञान के संस्कार का स्वाद सिर पर चढता गया. बिना किसी प्रतिकार के जो घर का था वह बाहर होता गया और बाहर का घर के भीतर आता गया. हमारा अपना ज्ञान और स्मृति सभी प्रतिबंधित होता गया और उसे ले कर संशय और संदेह तीव्र होते गए. साथ ही देश में पारस्परिक संवाद की जगह वर्चस्व की लड़ाई बढती गई. सतही स्तर पर कुछ अनुष्ठान जरूर चलते रहे . इस बीच हिंदी समेत देश की भाषाओं , संस्कृत की ज्ञान राशि, आयुर्वेद और योग आदि का भी जो दावा हो सकता था उसे खारिज कर दिया गया. परम्परा से संवाद के अभाव में तिरंगे पर टंका धर्म चक्र या सरकारी प्रयोग में आने वाला सत्यमेव जयते का बोध वाक्य निष्क्रिय प्रतीक बनते गए.
अपने समय से संवाद के लिए पूर्व परम्परा और ज्ञान को पचाना जरूरी होता है. बुद्ध, शंकराचार्य , कबीर , तुलसी , विवेकानंद तथा गांधी सरीखे पूर्वजों ने यह काम किया था. तुलसीदास ने तो खुल कर कहा कि निगमागमसम्मत और कुछ अपनी ओर से मिला कर कथा कहते हुए जन संवाद करेंगे. लोक जीवन से निकटता और उसे स्रोत के रूप में ग्रहण करने का काम गांधी जी ने भी किया था . धीरे-धीरे इस तरह की लोकरुचि जन नेताओं में कम होती गई. आम आदमी राज्य नामक मशीन का पुर्जा होता गया. आर्थिक और राजनैतिक जीवन के केंद्र में मनुष्य की सत्ता कमजोर पड़ने लगी. विभिन्न रूपों में हिंसा अपरिहार्य होती गई. परंतु स्वतंत्रता का तकाजा है अपने प्रति ईमानदारी और अपने ढंग से जीवन जीने का अवसर है परंतु यह नहीं भूलना चाहिए मनुष्य परस्परनिर्भर होते हैं. इसलिए हमें समग्र या अखंड जीवन की अभिव्यक्ति भी बनना होगा. राष्ट्र निर्माण के लिए निजी लाभ के भाव से ऊपर उठने की आवश्यकता है. इसके लिए आत्मानुशासन आवश्यक होगा. गांधी जी ने आगाह किया था कि भारत की राह पश्चिमी दुनिया की अनुकृति नहीं होनी चाहिए और वैसा करने में भारत की आत्मा खो जायगी जिसे खो कर वह नहीं बचेगा. अपने और विश्व के हित में उसे इसका प्रतिकार करना चाहिए . पर वे यह भी कहते हैं कि जड़ों से जुड़ाव का यह अर्थ नहीं है कि उसकी पहचान में कैद हो जांय . बगैर रूढ हुए अपनी अस्मिता का निर्धारण करना होगा. यह आश्चर्यजनक है कि औपनिवेशिक काल में रहते हुए गांधी जी उसके प्रभाव से मुक्त रह सके और स्वाधीन भारत अनिश्चय की मुद्रा में बना रहा या फिर पश्चिम से आस लगाए रहा. वर्तमान सरकार ने अनेक स्तरों पर समाज के हाशिए पर स्थित जनों की सुधि ली है और किसानों की चिंता की है जो जड़ों को जीवन्त क्रने से कम नहीं है. का अमृत महोत्सव एक राष्ट्र राज्य ( नेशन स्टेट ) के रूप में देश ने सर्वानुमति से सन 1950 में संविधान स्वीकार किया जिसके अधीन देश के लिए शासन-प्रशासन की व्यवस्था की गई. वैधानिक रूप में 'स्वराज' के कार्यान्वयन का यह दस्तावेज देश को एक गणतंत्र (रिपब्लिक ) के रूप में स्थापित करता है . एक गणतंत्र के रूप में इसकी नियति इस पर निर्भर करती है कि हम इसकी समग्र रचना को किस तरह ग्रहण करते हैं और संचालित करते हैं. यह संविधान भारत को एक संघ के रूप में स्थापित करता है और इसके अंग राज्यों को भी विभिन्न प्रकार की स्वतंत्रताएं देता है. इसमें केंद्र और राज्य के रिश्ते को अनुशासित करने के लिए अनेक तरह की व्यवस्थाएं की गई हैं और उनमें आवश्यकतानुसार बदलाव भी किया गया है।
पिछले सात दशकों में संविधान को अंगीकार करने और उस पर अमल करने में अनेक प्रकार की कठिनाइयां आईं और जन-आकांक्षाओं के अनुरूप उसमें अब तक सौ से ज्यादा संशोधन किए जा चुके हैं. राज्यों की संरचना भी बदली है . इस बीच देश की जन संख्या बढी है और उसकी जरूरतों में भी इजाफा हुआ है. पड़ोसी देशों की हलचलों से मिलने वाली सामरिक और अन्य चुनौतियों के बीच भी देश आगे बढ़ता रहा . देश की आतंरिक राजनैतिक-सामाजिक गतिविधियाँ लोक तंत्र को चुनौती देती रहीं पर सारी उठा पटक के बावजूद देश की सार्वभौम सत्ता अक्षुण्ण बनी रही. लोकतांत्रिक प्रक्रियाएं बहुलांश में सुरक्षित रही हैं परन्तु राजनैतिक और सामाजिक-आर्थिक परिवर्तनों के साथ राज्य की नीतियों में परिवर्तन भी होता रहा है. इन सब में स्थानीय और अंतरराष्ट्रीय सरोकारों और दबावों की खासी भूमिका रही है. देश ने अनेक क्षेत्रों में महत्वपूर्ण उपलब्धियां दर्ज की हैं. अंतरिक्ष विज्ञान , स्वास्थ्य , विद्युतीकरण , सूचना तथा संचार की प्रौद्योगिकी और सड़क निर्माण जैसी आधार रचना के क्षेत्र में हुई क्रांतिकारी प्रगति उल्लेखनीय है. देश की यात्रा में 'विकास' एक मूल मंत्र बना रहा है जिसमें उन्नति के लक्ष्यों की और कदम बढाने की कोशिशें होती रहीं. देश तो केंद्र में रहा परन्तु वरीयताएँ और उनकी और चलने के रास्ते बदलते रहे . पंडित नेहरू की समाजवादी दृष्टि से डा. मनमोहन सिंह की उदार पूंजीवादी दृष्टि तक की यात्रा ने सामाजिक-आर्थिक जीवन के ताने-बाने को पुनर्परिभाषित किया . वैश्वीकरण , निजीकरण और उदारीकरण ने आर्थिक प्रतियोगिता के अवसरों और तकनीकों को नया आकार दिया जिसके परिणामस्वरूप अतिसमृद्ध लोगों की संख्या में अच्छी खासी वृद्धि दर्ज हुई है. वर्त्तमान नेतृत्व इक्कीसवीं सदी में विकास के नए क्षितिज की तलाश करते हुए भारत को एक सशक्त राष्ट्र बनाने की दिशा में अग्रसर है।
भौतिक संरचना और सामाजिक संरचना के रूप में कोई भी देश एक गतिशील सत्ता होती है. अंग्रेजों ने भारत को एक गरीब , अशिक्षित और अंतर्विरोधों से ग्रस्त बना कर यहाँ से बिदाई ली थी. साथ ही शिक्षा और संस्कृति के के अनेक सन्दर्भों में पाश्चात्य परम्परा की श्रेष्ठता और भारतीय दृष्टि की हीनता को भी स्थापित किया था. विशेष तरह की शिक्षा के अभ्यास के चलते भारत के शिक्षित वर्ग का मानसिक बदलाव भी हुआ . इन सबके फलस्वरूप स्वतंत्र हुआ भारत वैचारिक रूप से वह नहीं रहा जिसने स्वतंत्रता अर्जित की थी. राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने जिस भारत की कल्पना की थी वह संरचना, प्रक्रिया और लक्ष्य की दृष्टि से कुछ और था. उनके द्वारा प्रस्तावित माडल की उपयुक्तता को लेकर शुरू से ही देश के नेताओं के मन में संशय था और उसी अनुरूप देश ने दूसरी राह पकड़ ली . आज समृद्धि के साथ गरीबी भी बढी है. कृषि क्षेत्र की सतत उपेक्षा ने स्थिति को विस्फोटक बना दिया . सामाजिक सहकार की रचना में भी कई छिद्र होते गए . बेरोजगारी बढी है और शिक्षा की गुणवत्ता घटी है. आर्थिक उन्नति का आकर्षण इस तरह केन्द्रीय होता गया है कि शेष मानवीय मूल्य पिछड़ते जा रहे हैं. सीमित निजी स्वार्थ की सिद्धि के लिए संस्था और समाज के हित की अवहेलना आम बात होती जा रही है. राजनैतिक परिदृश्य में राष्ट्रीय चेतना और चिंता को महत्त्व न दे कर छुद्र छोटे हितों को महत्त्व देने की प्रवृत्ति क्रमश: बलवती होती गई . फलत: समाज सेवा द्वारा राजनीति और राजनीति द्वारा समाज सेवा करने की भावना पिछड़ती जा रही है . बंशवाद को प्रश्रय मिलने से राजनीति की सामाजिक जड़ें कमजोर पड़ रही हैं और अवसरवादिता को प्रश्रय मिल रहा है. अब राजनीतिज्ञ समाज से जुड़ने में कम और शासन करने में अधिक रुचि ले रहे हैं. राजनीति की वैचारिक और मूल्य की ओर अभिमुख ताकत की जगह सत्ता , धन बल और बाहु बल का समीकरण जिस तरह मौंजू होता गया है वह भयावह स्तर तक पहुँच रहा है. आज ज्यादातर राजनैतिक दलों में उम्मीदवारी के लिए मानदंड समाज सेवा , देश भक्ति या नीतिमत्ता से अधिक जाति-बिरादरी , कुनबा , आर्थिक सम्पन्नता और बाहु बल की उपलब्धता बनते जा रहे हैं. इस राह पर चल कर सत्ता तक पहुँच बनाने वाले राजनेता अपने कर्तव्यों के निर्वहन में यदि कोताही करते हैं तो वह एक स्वाभाविक परिणति ही कही जायगी. इसके साथ ही चुनाव में बढ़ता खर्च राजनीति तक पहुँच को दूर और कठिन बनाता जा रहा है. इस पर रोक लगाने के लिए कोई तरीका काम नहीं कर रहा . राजनैतिक साक्षरता और परिपक्वता की दृष्टि से ये शुभ संकेत नहीं कहे जा सकते।
यह भी गौर तलब है कि राजनीति और सामाजिक जीवन में आम जनों की भागीदारी में अपेक्षाकृत वृद्धि नहीं हो रही है. इसका कारण भारतीय राजनीति की बदलती संस्कृति है. इससे क्षुब्ध हो कर बहुत से लोग खुद को राजनीति से दूर रहने में ही भलाई देखते हैं . राजनेता जनता से दूर रहते हैं और उन तक जनता की पहुँच भी घटती जा रही है. इसका सीधा-सीधा असर आम आदमी के नागरिक जीवन की गुणवत्ता पर पड़ता है. दुर्भाग्य से राजनेता अपने इर्द-गिर्द ऐसे लोगों का दायरा बढाते जा रहे हैं और सत्ता के निकट मडराने वाले इस तरह के झूठे सच्चे मध्यस्थों की संख्या बढ़ती जा रही है. यह आज के भारत के जटिल सामाजिक यथार्थ की एक दुखती रग है. को भुगतना पड़ता है।
देश के कानून की नजर में हर व्यक्ति एक सा है परन्तु वास्तविकता समानता , समता और बंधुत्व के भाव की स्थापना से अभी भी दूर है. न्याय की व्यवस्था जटिल , लम्बी और खर्चीली होती जा रही है. पुलिस मुहकमा जो सुरक्षा के लिए जिम्मेदार है दायित्वों के निर्वाह को ले कर प्रश्नों के घेरे में खड़ा रहने लगा है. सरकारी काम काज बिना परिचय और सिफारिश के सर्व साधारण के लिए दुष्कर होता जा रहा है. समाज में हाशिए पर स्थित समुदायों के लोगों को वे सुविधाएं और अवसर नहीं मिलते जो मुख्य धारा के लोगों को सहज ही उपलब्ध होते हैं. हाशिए के समाज की चर्चा करते हुए अनुसूचित जाति (एस सी) और अनुसूचित जन जाति ( एस टी ) सबसे पहले ध्यान में आते हैं . आर्थिक, सामाजिक और शैक्षिक दृष्टि से वंचित होने का इनका पुराना इतिहास है. विस्थापित मजदूर , दिव्यांग , ट्रांस जेंडर , गरीबी की रेखा के नीचे के अनुसूचित जाति और अन्य पिछड़ी जाति (ओ बी सी) के लोग, स्त्रियाँ, बच्चे, वृद्ध, मानसिक रूप से अस्वस्थ, अल्प संख्यक (मुसलमान, सिख, ईसाई, जैन ) भी हाशिए के समूह है. जेंडर आधरित घरेलू हिंसा , सेक्स से जुड़ी हिंसा और बलात्कार आदि की घटनाएं जिस तरह बढी है वह चिंता का कारण है . हाशिए के लोगों की आशाएं और आकांक्षाएं प्राय: अनसुनी रह जाती हैं और यह क्रम पीढी दर पीढी चलता रहता है. इसके फलस्वरूप समाज में भी उनकी भागीदारी घटती जाती है।
देश के विकास का तकाजा तो ऐसे सहज वातावरण का विकास है जो सबके लिए स्वस्थ, उत्पादक और सर्जनात्मक जीवन का अवसर उपलब्ध करा सके . वस्तुतः हाशिए के समूहों की स्थिति में परिवर्तन के लिए ठोस प्रयास करने होंगे. आवश्यक संसाधनों की व्यवस्था के साथ इनके दृष्टिकोण को भी बदलना भी जरूरी है. इन समुदायों को सकारात्मक दिशा देने और समर्थ बनाने के लिए सरकारी प्रयास के साथ सामाजिक चेतना का जागरण भी आवश्यक है।
भारत जैसा गणतंत्र इकतारा न हो कर एक वृन्द वाद्य की व्यवस्था या आर्केस्ट्रा जैसा है जिसमें छोटे बड़े अनेक वाद्य हैं जिनके अनुशासित संचालन से ही मधुर सुरों की सृष्टि हो सकती है. देशराग से ही उस कल्याणकारी मानस की सृष्टि संभव है जिसमें सारे लोक के सुख का प्रयास संभव हो सकेगा. कोलाहल पैदा करना तो सरल है क्योंकि उसके लिए किसी नियम अनुशासन की कोई परवाह नहीं होती पर संगीत से रस की सिद्धि के लिए निष्ठापूर्वक साधना की जरूरत पड़ती है. कोरोना की महामारी के लम्बे विकट काल में विश्व के इस विशालतम गणतंत्र ने सीमा पर टकराव के साथ-साथ स्वास्थ्य , चुनाव , शिक्षा और अर्थ व्यवस्था के आतंरिक क्षेत्रों में चुनौतियों का डट कर सामना किया और अपनी राह खुद बनाई . यह उसकी आतंरिक शक्ति और जिजीविषा का प्रमाण है. स्वतंत्रता का छंद नैतिक शुचिता और जन गण मन के प्रति सात्विक समर्पण से ही निर्मित होता है. इसके लिए दृढ संकल्प के साथ कदम बढ़ाना होगा।
समय बड़ा बलवान होता है और उसकी झोली में क्या कुछ छिपा होता है अक्सर अनुमान से परे होता है. हम सभी प्राय: भोक्ता और द्रष्टा की भूमिका में रहते हैं . कभी कभी ज्ञाता और कर्ता का अभिमान हो जाता है . बुद्धि-बल का पराक्रम विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में सबसे प्रखर रूप में निखर कर सामने आता है और अपने किये पर गर्व और अभिमान भी महसूस करते हैं . यह सृष्टि में अपने अस्तित्व को ले कर आदमी को कई तरह के भ्रम और विभ्रम में भी डाल देता है . वह स्वयं को नियंता मानने की भूल करने लगता है और चेतना के संकेतों को अनसुना करने लगता है . तभी कुछ ऐसा घटने लगता है जो सारी गतिविधि पर 'ब्रेक ' लगा देता है और जीवन ठहर सा जाता है. कोविड के अदृश्य विषाणु के विकट प्रभाव से सकते में आ गया. भस्मासुर की नाईं संपर्क से लाखों का जीवन-संहार करता हुआ यह उपद्रव अमीर , गरीब , विकसित , अविकसित देशों में नस्ल, जाति और धर्म से परे सबको लीलता रहा . आर्थिक गतिविधि , शिक्षा , आजीविका और नागरिक जीवन सभी अव्यवस्थित रहा. भारत ने सतर्कता बरतते हुए जो कदम उठाए उससे सघन जनसंख्या के बावजूद तुलनात्मक रूप से जीवन-हानि कम हुई पर जो हानि हुई और जिस तरह की अस्त-व्यस्त सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था का अनुभव देश ने किया उसने प्रशासन , नीति और व्यवस्था को ले कर कई तरह के असंतोष को जन्म दिया . यह अलग बात है कि धैर्य के साथ भारत ने इसका सामना किया गया और विस्थापन, आजीविका और आर्थिक कठिनाइयों से उबरने की यथाशक्ति कोशिश की।
बीता साल भारत वर्ष में गहमागहमी और उठापटक वाला रहा . आतंरिक घटनाएं और सीमा सुरक्षा के मुद्दे प्रमुख बने रहे. शाहीन बाग़ के आन्दोलन और फिर दिल्ली में दंगों की याद के बीच यह साल राजनीति की हलचलों से भरा रहा . जमू कश्मीर की व्यवस्था , राजस्थान में राजनैतिक नाटक, अयोध्या में चिर प्रतीक्षित राम मंदिर का शिलान्यास , बिहार प्रदेश का चुनाव , गलवान घाटी में चीनी सेना के साथ लम्बी झड़प , राफेल विमानों से वायुसेना का सुसज्जित होना और रक्षा तैयारियों का सुदृढ़ और सशक्त करना , इसरो के महत्त्वपूर्ण राकेट प्रक्षेपण, बाढ़ और तूफ़ान की प्राकृतिक आपदाएं घटनाएं विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं. किसानों और ग़रीबों की आर्थिक स्थिति में सुधार के लिए कई उपाय किये गए हैं जो जमीनी हकीकत को बदल रहे हैं। कृषि में सुधार के लिए सरकार द्वारा बनाए गए कानून को ले कर किसानों के आन्दोलन ने कई महत्वपूर्ण प्रश्न खड़े किए हैं।
इस जटिल समय में प्रधान मंत्री ने आत्म निर्भरता , स्वदेशी , और स्थानीय प्रश्नों की अहमियत को बार-बार रेखांकित किया है और देश को देश के नजरिए से देखने के लिए प्रोत्साहित किया है. इस दृष्टि से कई योजनाओं को अंजाम दिया जा रहा है. भारत के लिए नई शिक्षा नीति युवा भारतीय समाज की मानव पूंजी की दृष्टिने से एक बड़ी उपलब्धि है. युवा पीढी की प्रतिभा के प्रस्फुटन और विकास की दृष्टि से इस तरह के बदलाव के लिए समुचित निवेश होना चाहिए . प्रतिभा-पलायन को रोक कर ज्ञान-विज्ञान और प्रौद्योगिकी के विभिन्न क्षेत्रों में युवा वर्ग को अवसर दे कर और उनमें आत्मविश्वास पैदा करना जरूरी है. इसके लिए हमें अपनी सांस्कृतिक दृष्टि को व्यापक बनाना होगा हालांकि व्यापकता का एक छद्म रूप भी पनपा है।
एक दौर था जब राजनीति की ओर रुख करना अपने को पीछे रख और अपने हित लाभ को त्याग कर जीने का रास्ता अख्तियार करने का था. समर्पण का एक ही प्रयोजन था कि देश को अंग्रेजों की गुलामी से मुक्त कराया जाय हालांकि स्वतंत्रता के अन्वेषी कई राहों पर चलने वाले थे और उनके मिजाज भी फर्क थे. यात्रा के खतरे और जोखिम के बावजूद लोग जुनून के साथ लगे रहते थे और देश ही विचार के केंद्र में था. राजनीति देश के लिए थी . अब देश ( यदि याद आता है तो ! ) राजनीति के लिए है. बदलते दौर में देश को प्राणवान बनाने के लिए जन गण के मन को सजीव बनाने के लिए छुद्र और संकुचित विचार त्याग कर देश हित को केंद्र में लाना होगा. राजनीति का यही धर्म होना चाहिए. यह भी स्मरणीय है कि देश सिर्फ भूगोल नहीं होता है. इसके लिए देश के साथ प्रीति की मानसिकता होनी चाहिए।
यह बात असंदिग्ध रूप से प्रमाणित है कि शिक्षा और ज्ञान की थोपी हुई शिक्षा की दृष्टि अंग्रेजों की औपनिवेशिक उद्देश्यों की पूर्ति का उपाय थी. अंग्रेजों ने भारत का भरपूर शोषण और दोहन किया . उनकी विश्व दृष्टि के परिणाम देश को स्वतंत्रता मिलने के समय साक्षरता , शिक्षा और अर्थ व्यवस्था में व्याप्त घोर विसंगतियों में देखा जा सकता है. स्वतंत्रता का अवसर वैकल्पिक व्यवस्था शुरू करने का अवसर था परन्तु राजनैतिक स्वराज के अतिरिक्त अन्य क्षेत्रों में परिवर्तन का विवेक कठिन साबित हुआ . फलत: स्वाधीन होने पर भी सही मायने में अंग्रेजी दौर के तौर तरीकों की निरंतरता बनी रही . उदासीनता , अज्ञान और आलस्य के चलते जो कुछ जैसे चल रहा था चलता रहा . अंग्रेजी शिक्षा नीति ने अनपढ़ , ज्ञानी और विज्ञानी की ऎसी कोटियाँ बना दीं जिसने कई नई जातियां खडी कर दीं और वर्चस्व की नई तस्वीर ही रच दी. ज्ञान तक पहुँच के बीच रोड़े दर रोड़े खड़े होते गए और ज्ञान का प्रवाह पश्चिम से भारत की और होने लगा. भाषा और ज्ञान की दृष्टि से हम यूरोप और अमेरिका पर अधिकाधिक निर्भर होते गए।
शिक्षा का उद्देश्य देश के मानस का निर्माण करना होता है और वह देश-काल और शिक्षा संस्कृति से विलग नहीं होनी चाहिए। संभवत: औपनिवेशक दृष्टि की औपनिवेशिकता ही दृष्टि से ओझल हो गई और उसकी अस्वाभाविकता भी बहुतों के लिए सहज स्वीकार्य हो गई मानों मात्र वही एक मात्र विकल्प हो . अंग्रेजी भाषा , जो ज्ञान का माध्यम है , ज्ञान का पैमाना बन गई . शिक्षा में स्वराज्य अभी भी प्रतीक्षित है. अनुकरण और पुनरुत्पादन की जगह मौलिकता और सृजनात्मकता के लिए भारत केन्द्रित ज्ञान और शिक्षा की व्यवस्था ही विकल्प हो सकती है।