फ्रांस को देने के लिए हमारे पास बहुत कुछ और सीखने के लिए बड़ा अवसर : आचार्य बालकृष्ण
- स्वदेश के लिए पैरिस से सिद्धार्थ शंकर गौतम की आचार्य बालकृष्ण जी से चर्चा
वेबडेस्क। पेरिस बुक फेयर में भारत का प्रतिनिधित्व करने पतंजलि योगपीठ से आचार्य बालकृष्ण भी पहुंचे थे। लेखक सिद्धार्थ शंकर गौतम ने स्वदेश के लिए आचार्य बालकृष्ण जी का साहित्य, संस्कृति, योग और आध्यात्म विषयक पर साक्षात्कार किया। सिद्धार्थ शंकर गौतम पैरिस में आयोजित कार्यक्रम में भारतीय प्रतिनिधि मंडल के सदस्य थे।
सिद्धार्थ शंकर गौतम: आप पेरिस बुक फेयर में भारत का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं। भारत इस पुस्तक मेले में अतिथि देश की भूमिका में हैं।आप इसे कैसे देखते हैं?
आचार्य बालकृष्ण: यह एक अवसर है। अवसर है भारत को, भारतीयता की पहचान को फ्रांस के जनमानस के बीच में स्थापित करना। भारत और भारतीयता को यही हम दिखाना चाहते हैं तो यह एक बड़ा अवसर है और इसके माध्यम से लोग कल्पना के भारत को नहीं वरन वर्तमान के भारत को जान पायेंगे।यह हमारे ऊपर निर्भर है कि उस भारत को हम कितना जना पाते हैं? इन्होंने हमारे लिए दरवाजा खोला है पर उस दरवाजे के अंदर हम कौन सी चीजों से उस कमरे को सजाते हैं जिससे कि उनके मनोभाव में भारत के प्रति छवि हम बना सकते हैं।यह हमारे ऊपर निर्भर है।अतः इस अवसर का हमें लाभ उठाना चाहिए।
सिद्धार्थ शंकर गौतम: पेरिस यूरोप का बड़ा सांस्कृतिक केंद्र रहा है। फ्रांस की क्रांति के बाद यूरोप ने इसका अनुसरण किया। यहाँ की और भारत की सांस्कृतिक विरासत में आपको क्या साम्य दिखा? दोनों देश एक-दूसरे से क्या सीख सकते हैं?
आचार्य बालकृष्ण: पेरिस आने के बाद पिछले तीन दिनों में मैं लगभग 30 किलोमीटर पैदल चल चुका हूँ।गाड़ी से यात्रा की बात करें तो लगभग 200-300 किलोमीटर की यात्रा कर चुके हैं।फ्रांस का जो ग्रामीण क्षेत्र है वहां का भ्रमण मैं कर चुका हूँ। यहाँ की खेती, यहाँ का उद्योग, पर्यटन, संस्कृति आदि को मैंने अपने बौद्धिक स्तर से जानने-समझने का प्रयास किया है और यह पाया है कि फ्रांस को देने के लिये हमारे पास बहुत कुछ है और फ्रांस से सीखने के लिए भी हमारे लिए बड़ा अवसर है।सबसे बड़ी बात, संस्कृति के प्रति कैसे निष्ठा होनी चाहिए... मैंने इतने दिनों में एक स्थान ऐसा नहीं देखा जहाँ अंग्रेजी में कुछ भी लिखा हो। हर स्थान पर फ्रेंच भाषा का प्रयोग हुआ है। हाँ, लूव्र संग्रहालय जाते समय अवश्य एक स्मारक जिसे अमेरिकी सरकार ने बनवाया था उस पर अंग्रेजी भाषा ने लिखा था।ये क्या हमारे देश के अन्दर, हमारी भाषा, हमारी बोलियाँ, हमारी पहचान एक रूप में हमारी ताकत हैं।पर ताकत है जब उन माध्यमों से हम सृजन में लगें। पर ये हमारी कमजोरी बन जाती है। उन माध्यमों से मैत्री दिखाने की जगह पर मैत्री तोड़ने का कदाचित प्रयास होता है।तो कम से कम हम राष्ट्रीय स्तर पर क्या अपने आपको जोड़ सकते हैं? एक उदाहरण है- चीन है। चीन में कई प्रकार की बोलियाँ और भाषाएँ हैं।पर राष्ट्रीय स्तर तो छोड़िये वैशिक स्तर पर भी चीन ने चीनी भाषा को स्थापित कर दिया है।सभी को गर्व होना चाहिए मातृभाषा किन्तु क्या मातृभाषा को स्थापित करने के लिए राष्ट्रीय भाषा को पीछे धकेलना चाहिए? ये बड़ा प्रश्न है। फ्रांस से भारत को यह सीखने की आवश्यकता है।हम जिस भी प्रांत में पैदा हुए उसकी भाषा-बोली पर गर्व होना ही चाहिए पर वैश्विक स्तर पर, राष्ट्रीय स्तर पर स्थापना की बात हो तो राष्ट्रीय भाषा को स्थापित करने का प्रयत्न हमें करना चाहिए। और जहाँ तक भारत से देने की बात है तो फ्रांस में योग के प्रति बहुत अभिरुचि है। आरोग्य के प्रति अभिरुचि है।हमें तत्काल प्रभाव से योग और आयुर्वेद पर एक विशेष कार्ययोजना बनाने की आवश्यकता है। साहित्य आदि उसका प्रथम चरण का कार्य करेगा। यहाँ के लोगों में भारत की संस्कृति को समझने की खासी ललक है। तो योग-आयुर्वेद आदि के माध्यम से भारतीय सनातन संस्कृति को हम इनकी जीवनशैली बना सकते हैं।
सिद्धार्थ शंकर गौतम: आचार्य जी, आपके साथ तीन दिन से हूँ। आपने पेरिस में गोशाला ढूंढ ली। आप पेरिस के ग्रामीण क्षेत्रों में खेती-बाड़ी देख आये।क्या आप यहाँ योग और आयुर्वेद के प्रचार-प्रसार और उसके यहाँ स्थापित होने की संभावनाएं तलाश रहे हैं?
आचार्य बालकृष्ण: यह बात सत्य है। हमारे जो सांस्कृतिक मूल तत्व हैं वे विश्वव्यापी हैं।और वैश्विक आवश्यकता को पूरा करने में अपनी महती भूमिका निभा सकते हैं।इसलिए मैंने देखा, कृषि को, आधुनिक अनुसन्धानपरक व्यवस्थाओं को, गोशाला को।भारत को हम डिजिटल एग्रीकल्चर और सस्टेनेबल एग्रीकल्चर, जो हमारे प्रधानमंत्री जी का भी स्वप्न है और हम सभी भारतवासियों का भी स्वप्न होना चाहिए, को पूरा करने के लिए हमें प्रयास करना चाहिए। मैं विश्व में जहाँ कहीं भी जाता हूँ, शहर की भीड़भाड़ से दूर ग्रामीण क्षेत्र ढूंढता हूँ। यह तो शहरों में रहने वालों का प्रसन्नचित्त और कूदता-फांदता जीवन दिख रहा है न, वह अन्न से दिख रहा है। उसकी पूर्ति के लिए उस देश का क्या साधन है? महात्मा गांधी ने कहा था, हमारा देश गाँवों में बसता है। मेरे हिसाब से सारी दुनिया ही गाँव में बसती है।गाँव न हों, खेत-खलियान न हों तो दुनिया नहीं बचेगी।मैं गाँव से दुनिया को देखने का प्रयास करता हूँ।
सिद्धार्थ शंकर गौतम: पतंजलि ने योग के माध्यम से क्रांति की ऐसी अलख जगाई की पूरा विश्व 21 जून को अंतरराष्ट्रीय योग दिवस मनाता है। पेरिस में एफिल टावर के नीचे हजारों की संख्या में फ्रांसवासी योग करते नजर आते हैं। आपको क्या लगता है, यह भेड़चाल है या दुनिया वास्तव में योग को अपना रही है?
आचार्य बालकृष्ण: देखिये, भेड़चाल तो तब होती जब कोई मजबूरी होती।यहाँ मजबूरी नहीं हैं। यहाँ तो स्वीकार्यता और भावना है और उसको हमने देखा है। उस स्वीकार्यता और भावना को जन आन्दोलन बनाना आपका और हम सबका काम है।
सिद्धार्थ शंकर गौतम: आप विश्व भ्रमण कर चुके हैं। आपने भारत की सनातन संस्कृति का प्रचार-प्रसार करने में अपनी पूरी आयु लगा दी। ऐसे कई आयाम होंगे जहाँ अभी भी आपको लगता है कि आपकी कुछ कसर बाकी है। आपकी भविष्यगत योजनायें क्या हैं?
आचार्य बालकृष्ण: योग वैश्विक स्तर पर पहुँच गया है किन्तु योग को वैज्ञानिक आधार देने की आवश्यकता है। दीर्घकाल तक यह स्वीकार्यता बनी रहे, एक वैज्ञानिक आधार के साथ, इसको प्रस्तुत करना होगा।आयुर्वेद के संदर्भ में लोगों की जिज्ञासाएं बनी हैं परन्तु आयुर्वेद को लोगों के जीवन के अपरिहार्य अंग बनाने के मामले में अभी हम सक्षम नहीं है।विविध प्रकार की भ्रांतियों और मान्यताओं के साथ-साथ बहुत बड़े-बड़े षड्यंत्र भी इस प्रयास में लगे हैं कि इन विधाओं का पुनर्स्थापन रोका जा सके।उस षड़यंत्र के किले को भी तोड़कर लक्ष्य साधना हमारा लक्ष्य है। यही लक्ष्य प्रत्येक देशवासी का बने यही हमारी कामना भी है और यह हम सबके लिए कमनीय भी है।
सिद्धार्थ शंकर गौतम: पूरे विश्व में कोरोना महामारी ने त्राहि मचाई किन्तु भारत को योग ने बचाया।प्राणायाम करने वाले इस विभीषिका के कम शिकार बने। वैश्विक बिरादरी भी इस सच को स्वीकार कर रही है। किन्तु एक बड़ा मेडिकल माफिया है जो नहीं चाहता कि भारत की इस प्राचीन सनातन पद्धति को दुनिया अपनाए। आपके मन में कहीं न कहीं यह भाव तो आता होगा?
आचार्य बालकृष्ण: भाव नहीं आता। यह तो तथ्य और प्रमाण सब उपलब्ध हैं।हम सैकड़ों उदाहरण दे सकते हैं और एक सुनियोजित ढंग से पूरी योजना चल रही है।बड़ा मेडिकल माफिया नहीं, षड्यंत्र वैश्विक स्तर पर काम कर रहा है।जितना बड़ा षड्यंत्र इसको दबाने के लिए काम कर रहा है उतना बड़ा हमारा सिस्टम इसको उबारने के लिए नहीं कर रहा है। ये देवासुर संग्राम है। असुर आज भी मुंह बाये खड़े हैं और देव शक्तिविहीन हैं। तो देवों की शक्ति बढ़ेगी और असुर परास्त होंगे। वैदिक संस्कृति का पुनः उत्थान होगा जिससे विश्व का कल्याण होगा।