'स्व' भाव राष्ट्र की एकात्मता का अधिष्ठान है-डॉ. मोहन भागवत
डॉ अजय खेमरिया
विजयादशमी के बार्षिक उदबोधन में भेदभावरहित भारत का आह्वान
विजयादशमी के बार्षिक उदबोधन में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक डॉ मोहन राव भागवत ने राष्ट्र की एकात्मता औऱ अखण्डता के लिए भेदभावरहित समरस समाज की अनिवार्यता पर विशेष जोर दिया है।उन्होंने स्वतंत्रता के साथ व्यवस्था में 'स्व'के भाव को रेखांकित करते हुए कहा कि भारत का 'स्व' भाव व्यवस्था से बाहर रखने की मानसिकता ने समाज में विभेद को बढ़ावा दिया है।स्व का भाव हमें स्वजनों का भान कराता है इसलिए एकात्म और अखंड भारत के लिए जात,पात,पंथ,मजहब,राज्य,भाषा के विभेद भुलाकर समरस समाजकार्य के साथ आगे बढ़ने की आवश्यकता है।भारत की आंतरिक समाज व्यवस्था को समतामूलक बनाने की महती आवश्यकता को प्रतिपादित करते हुए संघ प्रमुख ने आह्वान किया कि विविधताओं को ही हम अपनी एकात्मता का आधार बनाकर राष्ट्र को सशक्त बनाने में योगदान दें।
स्वतंत्रता के 75 वे बर्ष का विशेष उल्लेख करते हुए उन्होंने कहा कि स्वतंत्रता के साथ तंत्र को व्यवस्थागत प्राथमिकता मिलने से स्वजन भाव का हास हुआ जिसके परिणामस्वरूप विभाजन की दुर्धर वेदना से भारत को गुजरना पड़ा है।इतिहास की इस भूल को विस्मृत करने के स्थान पर स्थाई स्मरण के साथ हमें यह सीख लेनी चाहिये कि कैसे हम राष्ट्र की एकात्मता को आगे सुरक्षित रखें।समतामूलक समाज व्यवस्था के निर्माण के लिए संघ प्रमुख ने मनोभाव को निर्णायक तत्व के रूप में अपनाए जाने की आवश्यकता पर जोर दिया।उन्होंने कहा कि व्यवस्था बाहरी आवरण है इसलिए समाज में विषमताओं को समाप्त करने के लिए व्यवस्था नही व्यक्ति के मन में स्वजन भाव का अविर्भाव आवश्यक है।हमें यह समझना चाहिये कि सभी भारतीय एक परिवार है हमारे अपने स्वजन है।इस भाव के तिरोहित होने से हमारी स्वाधीनता सदियों तक बाधित रही है।
डॉ भागवत ने कहा कि ऐतिहासिक रूप से भारत सदैव एक समरस समाज रहा है उन विविधताओं के बाबजूद जिन्हें आज अलगाव का आधार बनाकर प्रचलित किया जाता है।उन्होंने अरविन्द,गांधी और धर्मपाल के हवाले से यह भी बताया कि मूलतः भारत का लोकजीवन कतिपय विविधताओं के साथ एक सहकार-समरस समाज इकाई के रूप में आदि काल से जीवंत रहा है।आज के संदर्भ को जोड़ते हुए उन्होंने कहा कि एक बहुत बड़ा वर्ग विभिन्न स्तरों पर भारतीय समाज की रीतिनीति,परम्पराओं,इतिहास,सँस्कृति,समाज की आंतरिक गतिकी,को अपने मनमाकिफ़ ढंग से व्याख्यायित करके एकात्म और स्व भाव को खंडित करने में लगा रहता है।खासकर असम और अरुणाचल प्रदेश के पुलिस संघर्ष की चर्चा करते हुए उन्होंने कहा कि एक राष्ट्र इकाई के रूप में नागरिकों या पुलिस का यह संघर्ष इसलिए खड़ा होता है क्योंकि समाज जीवन से स्वजन का भाव और प्रभाव गायब हो रहा है।उन्होंने कहा कि इतिहास साक्षी है कि भारत पूजा पद्धति की भिन्नताओं के बाबजूद वसुधैव कुटुम्बकम का हामी रहा है इसलिए राजनीतिक फायदे के लिए समाज को बांटने वाली प्रयोजित गतिविधियों को हमें बारीकी से समझने की आवश्यकता है।बहुत ही संगठित तरीके से उन्नत तकनीकी के बल पर भारत के विरुद्ध षडयंत्र खड़े किए जा रहे है।
संघीय व्यवस्था के नाम पर वस्तुतः हमारे संविधान की भावना पर भी हमला हो रहा है।राजनीति के लिए फेडरल शब्द को जिस तरह भारत की एकात्मता औऱ अखण्डता के उलट व्यवहार में लाया जा रहा है उसके स्याह पक्ष को भी संघ प्रमुख ने अपने उदबोधन में पूरी प्रामाणिकता से उल्लेख किया। डॉ भागवत ने स्पष्ट कहा कि विशाल भारत की स्वाभाविक सामाजिक न्यूनताओं को कलह के रूप में प्रचारित करने से बहुत बड़े वर्ग की दुकानें चलती रहती हैं।हिन्दू समाज आपस में कटा,बंटा रहे यह हमारे समाज में मौजूद बहुत लोग चाहते है।इसलिए निरन्तर ऐसे सूक्ष्म एवं स्थूल प्रयास होते रहते है जिनका उद्देश्य भारत के जीवन मूल्यों को कमजोर करना होता है।भारतीय मूल्य स्व केंद्रित है इसलिए षडयंत्र पूर्वक एक सतत प्रक्रिया के तहत इन पर सुव्यवस्थित आक्रमण होता है।सावरकर को उदधृत करते हुए डॉ भागवत ने स्पष्ट किया कि सशक्त हिन्दू समाज अंततः गीता के अनुरूप व्यवस्था का हामी होगा।जहाँ अपने पराए का भेद नही है। समरस समाज निर्माण के साथ संघ के स्वयंसेवकों के प्रयासों की चर्चा करते हुए उन्होंने समरसता मंच की गतिविधियों के विस्तार की इच्छा भी व्यक्त की।
एक मंदिर, पानी, शमसान अभियान का उल्लेख करते हुए उन्होंने कहा कि स्वजन की भावना को स्थाई बनाने के लिए हमें अपने आसपास परिवार मिलन की प्रक्रिया को अपनाना होगा।परिवार सहित आपसी मिलन मनभेद के विचार का शमन करेगा इससे समाज के समरसता प्रकल्प परिणामोन्मुखी साबित होंगे।विषमता को व्यवस्थागत बुराई निरूपित करते हुए उन्होंने कहा कि व्यवस्था की बुराइयों को तभी समाप्त किया जा सकता है जब स्वजन भाव देश के हर मन में स्थाई हो। इसके लिए हमें उन बातों एवं भाष्य से बचना हो7गा जो समाज को जोड़ने के स्थान पर विभाजित करते है।उन्होंने जोर देते हुए कहा कि दैनंदिन जीवन में आपवादिक रूप से घटित होंने वाली घटनाओं पर सार्वजनिक प्रतिक्रिया की भाषा समाज को आपस में जोड़ने वाली होनी चाहिए।
सकारात्मक संभाषण को सामयिक आवश्यकता से जोड़ते हुए उन्होंने कहा कि घटना केंद्रित वक्तव्य समाज को राह दिखाने वाले होने चाहिये न कि भेद बढ़ाने वाले।स्वयंसेवको को मनभेद शमन की समाज प्रक्रिया से जुड़ने का स्पष्ट आह्वान करते हुए डॉ भागवत ने कहा कि भेदरहित चैतन्य मन मस्तिष्क ही भारत की स्वतंत्रता को टिकाऊ बना सकते है।भारत की अखंडता औऱ एकात्मकता के अधिष्ठान के रूप में समरस समाज के महत्व को भी सरसंघचालक ने स्पष्टता के साथ अनिवार्य बताया।