कारगिल में सैनिकों की खून से लथपथ बॉडी को देखा, युद्ध विजय के पीछे जवानों के प्राणों की आहुति, अदम्य साहस और शौर्य

24वें कारगिल विजय दिवस पर, वर्तमान में मिलिट्री हॉस्पिटल में पदस्थ ग्वालियर की रिटायर्ड लेफ्टिनेंट कर्नल डा.मीरा वर्मा ने कारगिल युद्ध में वीरों की संघर्ष गाथा और उनके शौर्य को स्वदेश से साझा किया।

Update: 2023-07-25 15:23 GMT

ग्वालियर। सन् 1999 कारगिल युद्व के लिए जाना जाता है। देश 24 वां कारगिल विजय दिवस मनाने जा रहा है। यह खास दिन देश के वीरों को समर्पित है, जिन्होंने तमाम मुश्किलों को पार करते हुए 26 जुलाई 1999 को पाकिस्तानी सैनिकों को कारगिल से खदेड़कर दुर्गम चोटियों पर जीत का परचम फहराया था। इस युद्व को भलेहि दो दशक से ज्यादा समय गुजर गया लेकिन देश आज भी इस दिन को याद कर अपने सैनिकों को श्रृद्वांजलि देता हैं। कारगिल युद्व के वीरों की गाथा ग्वालियर की रिटायर्ड लेफ्टिनेंट कर्नल डा.मीरा वर्मा ने चेतना राठौर (स्वदेश डिजिटल) से साझा की।


लेह में हुई पोस्टिंग,जिंदगी का पहला युद्व-

3 मई से 26 जुलाई 1999 तक चलने वाले कारगिल युद्व में शहर से शामिल होने वाली मैं एकमात्र  महिला अधिकारी थी। 1999 से 2003 तक मेरी पोस्टिंग एमएच लेह में थी। अपने पूरे 23 साल की सर्विस में मेरा ये पहला युद्व था। मैं सीधे तौर पर युद्व में शामिल नहीं हुई लेकिन घायल सैनिकों का इलाज करना मेरे लिए युद्व लड़ने की तरह ही था। सैनिकों का इलाज करने के दौरान उनके परिवार की फिक्र होने लगती थी। कारगिल युद्व जीतने के 10 से 12 दिन बाद  मेरी पोस्टिंग हुई, वहां रोज सैनिक घायल अवस्था में आते थे, क्योंकि युद्व भले ही जीत चुके थे लेकिन सैनिकों का वहां टीके रहना खतरे से खाली नहीं था। उसके बाद भी कई सैनिकों ने अपने प्राणों की आहुति दी।

एक रात आई 11 डेड बॉडी से कांपी रूह-

एक रात की बात है जब में अपनी नाइट ड्यूटी कर रही थी,उस दौरान एक साथ 11 डेड बॉडी हॉस्पिटल आई थी। उन्हें देखकर मेरी रूह कांप उठी। उस समय मुझसे अन्य सैनिकों का ट्रीटमेंट नहीं हो पा रहा था। जैसे ही हेलिकॉप्टर की आवाज आती, मेरा पूरा स्टाफ यह देखने बाहर की तरफ दौड़ लगाता कि अब कौन-सा सैनिक इलाज के लिए आया। उस दौरान मेरी 5 से 6 महीने घर पर बात नहीं हुई थी। जब देश को जीत की खबर मिली तो मेरा परिवार बहुत खुश हुआ था। आज भी जब वो मंजर मुझे याद आता है तो आंखे नम हो जाती है।

मेरे पिता का सपना था कि मैं आर्मी में जाऊं -

मेरे पिता चंदरलाल वर्मा स्वतंत्रता सेनानी थे। वो देश के लिए हमेशा समर्पित रहे। वैसे तो पेशे से वह टेलर थे, लेकिन उनका सपना था कि मैं आर्मी में जाकर देश की सेवा करूं। मैंने अपना पूरा जीवन देश को समर्पित कर दिया है आज रिटायरमेंट के बाद भी सैनिकों की सेवा करने का अवसर मिला तो बिना संकोच के उनकी सेवा करने देश के लिए तत्पर हूं। ईश्वर से मेरी प्रार्थना है कि अगले जन्म में भी मुझे आर्मी में सेवा करने का अवसर दें। 

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