दुबई में सीओपी 28 शिखर सम्मेलन के अंतिम सत्र में 200 देशों के बीच ऐतिहासिक पहल ग्लोबल स्टॉकटेक जलवायु समझौता इस मायने में महत्वपूर्ण रहा कि सभी देशों ने एक स्वर में जीवाश्म ईंधन के इस्तेमाल को उचित और न्यायसंगत तरीके से खत्म करने पर सहमति जतायी है। उम्मीद की जानी चाहिए कि सभी देश कोयले से बिजली उत्पादन को चरणबद्ध तरीके से घटाने की पहल तेज करेंगे। सम्मेलन में पेरिस समझौते को ध्यान में रखते हुए तापमान में वृद्धि 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित रखने के उद्देश्य से ग्रीनहाउस उत्सर्जन में 'गहरी, तीव्र और निरंतर कटौती पर भी सहमति जतायी गई है। इस ऐतिहासिक समझौते में निर्धारित लक्ष्यों को हासिल करने के लिए आठ सूत्री योजना का रोडमैप तैयार है। इसके मुताबिक 2050 तक नेट जीरो उत्सर्जन के निमित्त जीवाश्म ईंधन के इस्तेमाल में कमी लाना प्रस्तावित है।
वैज्ञानिकों की मानें तो बढ़ते तापमान के लिए मुख्यत: ग्लोबल वार्मिंग है और इससे निपटने की त्वरित कोशिश नहीं हुई तो आने वाले वर्षों में धरती का खौलते कुंड में परिवर्तित होना तय है। अमेरिकी वैज्ञानिकों की मानें तो वैश्विक औसत तापमान पिछले सवा सौ सालों में अपने उच्चतम स्तर पर है। औद्योगिकीकरण की शुरुआत से लेकर अब तक तापमान में 1.25 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि हो चुकी है। आंकड़ों के मुताबिक 45 वर्षों से हर दशक में तापमान में 0.18 डिग्री सेल्सियस का इजाफा हुआ है। आइपीसीसी के आंकलन के मुताबिक 21वीं सदी में पृथ्वी के सतह के औसत तापमान में 1.1 से 2.9 डिग्री सेल्सियस की बढ़ोत्तरी होने की आशंका है। अमेरिकी वैज्ञानिकों ने वायु में मौजूद ऑक्सीजन और कार्बन उत्सर्जन के अनुपात पर एक शोध में पाया है कि बढ़ते तापमान के कारण वातावरण से ऑक्सीजन की मात्रा तेजी से कम हो रही है। पिछले आठ सालों में वातारवरण से ऑक्सीजन काफी रफ्तार से घटी है। वैज्ञानिकों का कहना है कि पृथ्वी का तापमान जिस तेजी से बढ़ रहा है उस पर काबू नहीं पाया गया तो अगली सदी में तापमान 60 डिग्री सेल्सियस तक पहुंच सकता है।
पर्यावरणविदों की मानें तो बढ़ते तापमान के लिए मुख्यत: ग्रीन हाउस गैस, वनों की कटाई और जीवाश्म ईंधन का दहन है। तापमान में कमी तभी आएगी जब वैश्विक कार्बन उत्सर्जन में कमी होगी। आंकड़ों पर गौर करें तो 2000 से 2010 तक वैश्विक कार्बन उत्सर्जन की दर प्रतिवर्ष 3 प्रतिशत रही जबकि भारत के कार्बन उत्सर्जन में यह वृद्धि 5 प्रतिशत रही। कार्बन उत्सर्जन के लिए सर्वाधिक रुप से कोयला जिम्मेदार है। भारत की बात करें तो उसकी कुल आबादी का एक बड़ा हिस्सा आज भी कोयले पर निर्भर है। अच्छी बात यह है कि भारत ने गत वर्ष पहले पेरिस जलवायु समझौते को अंगीकार करने के बाद क्योटो प्रोटाकाल के दूसरे लक्ष्य को अंगीकार करने की मंजूरी दे दी है। उल्लेखनीय है कि उद्योगों से निकलने वाली ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को कम करने के लिए 11 दिसंबर, 1997 को जापान के क्योटो शहर में संयुक्त राष्ट्र के नेतृत्व में 192 देशों के बीच यह संधि हुई। 16 फरवरी, 2005 को यह प्रभावी हुई। विकसित देशों द्वारा विकासशील देशों को लक्ष्य पूरा करने के लिए आर्थिक और तकनीकी मदद उपलब्ध कराना भी इसका हिस्सा है। संधि का पहला लक्ष्य 2008-12 के लिए तय हुआ था। इसमें औद्योगिक अर्थव्यवस्था वाले 52 देशों ने चार ग्रीन हाउस गैसों (कार्बन डाई ऑक्साइड, मीथेन, नाइट्रस ऑक्साइड और सल्फर हेक्साफ्लोराइड) का उत्सर्जन 1990 की तुलना में 5 प्रतिशत तक घटाने का लक्ष्य रखा था। अन्य देशों ने भी इसके लिए अपने-अपने लक्ष्य रखे थे। 2020 से कार्बन उत्सर्जन को घटाने संबंधित प्रयास शुरु करने के लिए दिसंबर, 2015 को यह संधि हुई। इस संधि पर 192 देशों ने हस्ताक्षर किए। 126 देश इसे अंगीकार कर चुके हैं। भारत ने 2 अक्टुबर, 2016 को इसे अंगीकार करके अन्य देशों को भी अंगीकार करने की राह दिखायी। फिर कुछ अन्य देशों द्वारा इसे अंगीकार किए जाने पर 4 नवंबर, 2016 को यह प्रभावी हुआ। पृथ्वी के तापमान को स्थिर रखने और कार्बन उत्सर्जन के प्रभाव को कम करने के लिए कंक्रीट के जंगल का विस्तार और अंधाधुंध पर्यावरण दोहन पर लगाम कसना होगा। बेहतर होगा कि वैश्विक समुदाय कार्बन उत्सर्जन पर नियंत्रण के लिए 'ग्लोबल स्टॉकटेकÓ जलवायु समझौता के लक्ष्यों को हासिल करने की दिशा में आगे बढ़े।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)