ग्लेशियरों से बनी झील के खतरे

ज्ञानेन्द्र रावत

Update: 2023-10-10 19:48 GMT

पिछले दिनों उत्तरी सिक्किम की चीन सीमा से सटी ग्लेशियर झील साउथ ल्होनक में उफान आने और उसके पास बादल फटने से तीस्ता नदी में आयी बाढ़ से उत्तरी सिक्किम के चार जिलों मंगन, पाक्योंग, नामची एवं गंगटोक की आबादी सबसे ज्यादा प्रभावित हुयी है। 6,675 लोग राहत शिविरों में शरण लिए हैं। 1,320 से ज्यादा मकान ध्वस्त या क्षतिग्रस्त हुए हैं। इस तबाही से कुल मिलाकर 41,870 लोग प्रभावित हुए हैं। दरअसल इस तबाही का मुख्य कारण जीएलोएफ जिसे ग्लेशियर लेक आउटबर्स्ट फ्लड कहते हैं यानी ल्होनक झील में उफान आने और तीस्ता नदी का जलस्तर अचानक 20 फीट तक बढ़ जाने, चुंगथांग बांध टूटने और सिक्किम के चुंगथाम इलाके में स्थित ल्होनक झील के ऊपर बादल का फटना माना जा रहा है। यह झील ल्होनक ग्लेशियर पर बनी है। बादल फटने के बाद पानी के तेज बहाव के चलते लेक की दीवारें टूट गयीं और भारी मात्रा में मलबे के साथ पानी तीस्ता में आया जिससे नदी का जलस्तर काफी बढ़ गया। इससे समूची लाचेन घाटी में चारो ओर तबाही का मंजर है। तीस्ता किनारे फार्मास्युटिकल कंपनियां और जलविद्युत परियोजनाओं के परिसरों में काफी नुकसान हुआ है और नदी किनारे रहने वाले तकरीब 15-20 हजार लोग बेघरवार हुए हैं।

यहां गौरतलब है कि यह आपदा प्राकृतिक जरूर है लेकिन इसे पूरी तरह अप्रत्याशित नहीं कहा जा सकता। वह बात दीगर है कि इसे केन्द्रीय जल आयोग के अधिकारी नेपाल और भारत में आये भूकंप को सिक्किम में आयी बाढ़ का एक कारण भले करार दें लेकिन इसके साथ-साथ इस सच्चाई को भी दरगुजर नहीं किया जा सकता कि 168 हेक्टेयर क्षेत्र में फैली यह झील पहले से ही असुरक्षित घोषित थी। वह बात दीगर है कि अब इस झील का क्षेत्रफल कुछ जानकार 60 हेक्टेयर कम बता रहे हैं लेकिन इससे इस झील के खतरनाक होने के अंदेशे को नकारा नहीं जा सकता। उस हालत में जबकि राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण पहले ही सिक्किम की 25 हिमनद झीलों को खतरनाक घोषित कर चुका है जिनमें ल्होनक समेत 14 झील अत्याधिक संवेदनशील करार दी जा चुकी हैं। देखा जाये तो जीएलओएफ तब होता है जब हिमनद झीलों का जलस्तर काफी ज्यादा बढ़ जाता है। इससे बडी़ मात्रा में पानी पास की नदियों और धाराओं में बहने लगता है जिसके कारण अचानक बाढ़ आ जाती है जो तबाही का कारण बनती है। यहां इस तथ्य को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता कि वैश्विक तापमान वृद्धि के चलते तेजी से पिघल रहे इस ग्लेशियर का पानी इसी झील में जमा हो रहा था और उसी के कारण इस झील का क्षेत्रफल लगातार बढ़ता जा रहा था। यह भी कि इसी साल मार्च महीने में संसद में पेश रिपोर्ट में यह चेताया गया था कि हिमालय के तमाम ग्लेशियर अलग- अलग दर से लेकिन तेजी से पिघल रहे हैं जिसके चलते हिमालयी नदियां किसी भी समय बडी़ प्राकृतिक आपदा का कारण बन सकती हैं। दरअसल दुनिया में हो रहे नित नये-नये शोध इस बात के प्रमाण हैं कि भले ही ग्लोबल वार्मिंग को 1.5 डिग्री सेल्सियस तापमान पर रोक दिया जाये, इसके बावजूद दुनिया में तकरीब दो लाख पंद्रह हजार ग्लेशियरों में से आधे से ज्यादा और उनके द्रव्यमान का एक चौथाई हिस्सा इस सदी के अंत तक पिघल जायेगा। यह पेरिस समझौते के लक्ष्य से भी परे है। असलियत यह है कि ग्लोबल वार्मिंग के चलते दुनियाभर के ग्लेशियर पिघल -पिघलकर टुकडो़ं में बंटते चले गये। वैज्ञानिकों ने आशंका व्यक्त की है कि इन हालातों में सदी के अंत तक दुनिया के आधे से ज्यादा ग्लेशियर पिघल जायेंगे।

इसका मुकाबला इसलिए और जरूरी है कि हमारी धरती आज जितनी गर्म है उतनी मानव सभ्यता के इतिहास में कभी नहीं रही है। सबसे ज्यादा चिंता की बात यह है कि ग्लेशियर पिघलने से बनी झीलों से आने वाली बाढ़ से भारत समेत समूची दुनिया के तकरीब डेढ़ करोड़ लोगों के जीवन पर खतरा मंडराने लगा है।

अब यह जगजाहिर है कि ग्लेशियरों के पिघलने से ऊंची पहाड़ियों में तेजी से कृत्रिम झीलें बनेंगीं और इन झीलों के टूटने से बाढ़ तथा ढलान पर बनी बस्तियों तथा वहां रहने-बसने वाले लोगों पर खतरा बढ़ जायेगा। इससे पेयजल समस्या तो विकराल होगी ही, पारिस्थितिकी तंत्र भी प्रभावित हुए बिना नहीं रहेगा जो भयावह खतरे का संकेत है। ग्लेशियरों पर मंडराते संकट को नकारा नहीं जा सकता। यदि यह पिघल गये तो ऐसी स्थिति में सारे संसाधन खत्म हो जायेंगे और ऐसी आपदाओं में बेतहाशा बढो़तरी होगी। इसलिए जहां बढ़ते तापमान और जलवायु परिवर्तन से प्राथमिकता के आधार पर लड़ना जरूरी है, वहीं ग्लेशियरों की निगरानी और उनसे बनी झीलों से उपजे संकट का समाधान भी बेहद जरूरी है। वैज्ञानिक और पर्यावरणविद बरसों से चेता रहे हैं कि पर्वतीय क्षेत्रों में बुनियादी ढांचों,बस्तियों और पनबिजली परियोजनाओं का बेतहाशा निर्माण और ग्लेशियर पिघलने से बनी झीलों की तादाद में बढो़तरी बेहद चिंता का विषय है। इस पर अंकुश लगना चाहिए। सबसे बडी़ बात यह कि बांधों से हिमालयी पारिस्थितिकी तंत्र सबसे ज्यादा प्रभावित होता है जिसकी चिंता किसी को नहीं है। यहां इस सच्चाई से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि ग्लोबल वार्मिंग जैसी वैश्विक समस्या से कोई सरकार अकेले नहीं निपट सकती लेकिन अपने यहां के बड़े और संवेदनशील ग्लेशियरों की स्थिति पर लगातार नजर रखते हुए संभावित खतरों से निपटने की तैयारी तो कर ही सकती हैं। और संवेदनशील इलाकों में रहने वालों को सचेत करके आपदा से बचाव और उससे होने वाले नुकसान को कम से कम करने के प्रयास तो किये ही जा सकते हैं।

( लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं पर्यावरणविद हैं)

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