इस्लामिक भीड़तंत्र की भेंट चढ़ते संघ-भाजपा नेता-कार्यकर्ता

डॉ. आनंद पाटील

Update: 2021-12-24 10:41 GMT

वेबडेस्क। भारतीय संस्कृति के संरक्षक आदि शंकराचार्य की जन्मभूमि (केरल) प्रायः हिंसा तथा रक्तरंजित घटनाओं के कारण चर्चा-परिचर्चाओं में रहती है। राज्य में 18-19 दिसंबर को केवल 12 घंटों के अंतराल में हुई दो 'राजनीतिक' हत्याओं ने देशभर में खलबली मचा दी है। 18 दिसंबर को एल्लेपी (अलाप्पुळा) में सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी ऑफ इंडिया (एसडीपीआई) के सचिव केएस शान को स्कूटर से घर लौटते हुए, कथित रूप से एक कार ने उन्हें टक्कर मारकर गिराया। फिर, घटनास्थल पर ही कार सवार ने उन्हें पीटा और उनकी मृत्यु हो गयी थी। उल्लेखनीय है कि एसडीपीआई इस्लामिक संगठन पॉपुलर फ्रंट ऑफ इंडिया (पीएफआई) का राजनीतिक संगठन है। अगले दिन केएस शान की मृत्यु से 12 घंटों के भीतर ही 12 हत्यारों ने एल्लेपी में ही भाजपा ओबीसी मोर्चा के राज्य सचिव रंजीत श्रीनिवास की उनके निवास पर परिवारजनों के सामने बर्बरतापूर्ण हत्या कर दी। इसमें भाजपा ने 'इस्लामिक आतंकवादी समूह' का हाथ बताया है। रंजीत अत्यंत सामाजिक एवं शांतिप्रिय नेता थे।

हिंसा तथा रक्तपात किसी भी देश और समाज को पतन की ओर ही ले जाता है। प्रसंगोचित उल्लेख यह भी कि भारत में जैसे-जैसे हिन्दुओं द्वारा 'प्रतिरोध की संस्कृति' का अनुसरण किया जा रहा है, संघ-भाजपा के कार्यकर्ताओं की हत्याएँ बढ़ रही हैं। इसी वर्ष फरवरी में एल्लेपी के ही वायलार में एसडीपीआई के एक गुट ने उन्मुक्त प्रदर्शन का 'प्रतिरोध' करने पर संघ कार्यकर्ता नंदू कृष्णा की हत्या कर दी थी। केरल में इस्लामिक संगठनों की निरंकुशता के अनेकानेक उदाहरण हैं। मुस्लिम समुदाय के 'जनसांख्यिकीय परिवर्तन' (वृद्धि) के साथ-साथ उनमें निरंकुशता एवं अराजकता बढ़ने के उदाहरण भी उपलब्ध हैं।

इसी वर्ष सितंबर में, असम में पुलिसकर्मियों पर हुए हमले के बाद मुख्यमंत्री हिमंता बिस्वा सरमा ने पीएफआई को प्रतिबंधित करने की बात कही थी। उन्होंने भूमि अतिक्रमण मामले में 'जनसांख्यिकीय परिवर्तन' को रेखांकित किया था। विदेशों में 'ऑसम विदाउट अल्लाह' का दौर आरंभ हो चुका है, वहीं भारत में अल्लाह के नाम पर हिंसा, अराजकता और हत्याओं का सिलसिला बढ़ता ही जा रहा है। अगस्त 2020 में बंगलुरु (कर्नाटक) में मुहम्मद संबंधी फेसबुक पोस्ट ने हडकम्प मचा दिया था। अर्थात् केरल ही नहीं, अपितु देश में कहीं भी यह 'तथाकथित' अल्पसंख्यक समुदाय संख्या में बढ़ जाता है, तो हिंसक हो जाता है। केरल निवासी हिन्दू इसे तुष्टीकरण की राजनीति और सरकार से उन्हें मिली हुई खुली छूट का प्रतिफलन बताते हैं। राज्य में अनेक जिलों में मुस्लिम बहुसंख्यक हैं। फिर भी, उन्हें 'अल्पसंख्यक' का दर्जा हासिल है।

भाजपा नेता रंजीत श्रीनिवास की हत्या के बाद केंद्रीय मंत्री वी. मुरलीधरन ने इसे 'इस्लामिक आतंकवादी समूहों का काम' बताते हुए उनके प्रति राज्य सरकार के 'नरम रुख' की आलोचना की है। केरल में इस्लामिक आतंकवाद के विभिन्न प्रकार और मोडस ऑपरांडी से संबंधित समाचार समय-समय पर आते हैं। इस संदर्भ में सिरो-मालाबार चर्च का बयान भी स्मरणीय है, जिसमें यह दावा किया गया था कि ईसाई महिलाओँ को भी आईएसआईएस की भेंट चढ़ाया जा रहा है। वे 'लव जिहाद' की शिकार हो रही हैं। धीरे-धीरे केरल देशांतर्गत सुरक्षा की दृष्टि से चिंता का विषय बनता जा रहा है। 

केरल के कुछ स्थानीय निवासी केएस शान की 'कथित' हत्या को संघ कार्यकर्ता नंदू कृष्णा की एसडीपीआई के गुंडों द्वारा की गयी हत्या से जोड़कर 'प्रतिशोध' के रूप में भी देख रहे हैं। ध्यातव्य है कि 24 फरवरी को केरल के वालयार (एल्लेपी) में एसडीपीआई के एक गुट ने योगी आदित्यनाथ के विरोध-प्रदर्शन में आपत्तिजनक नारे लगाये थे, अतः नंदू कृष्णा ने आपत्ति जताई थी। परिणामतः उनकी हत्या कर दी गयी थी। ऐसे ही, 15 नवंबर को पालक्काड़ निवासी संघ प्रचारक संजीत की दिन-दहाड़े उनकी पत्नी के सामने ही हत्या कर दी गयी थी। संघ-भाजपा कार्यकर्ताओं की हत्याओं में एक पैटर्न है – कुछ लोग समूह में आते हैं। जिसकी हत्या तय है, उसे उसके परिवारजनों के सामने बर्बरतापूर्वक मार देते हैं। रंजीत, संजीत और नंदू कृष्णा इत्यादि की हत्याएँ इसी पैटर्न में हुई हैं।

कार्यकर्ताओं की हत्याओं को दृष्टिगत रखते हुए भाजपा ने पीएफआई समर्थित आतंकवाद पर राज्य की असफलता तथा 'नरम रुख' की ओर संकेत करते हुए राज्य में 'सीरिया की सी स्थितियों' का ज़िक्र किया है और हत्याओं की निष्पक्ष जाँच की माँग की है।

ध्यातव्य है कि पहले संघ-भाजपा कार्यकर्ताओं की हत्याओं का आरोप वामपंथियों पर लगता रहा है। आरोप सत्य प्रमाणित भी होते रहे हैं। आरोपों को दृष्टिगत रखते हुए कहा जा सकता है कि कुछ वर्षों से हत्यारे बदल गये हैं, परंतु हत्याओं का पैटर्न जस-का-तस है। अब आरोपों के घेरे में कम्युनिस्ट सरकार समर्थित आतंकी समूह हैं। वैसे, पीएफआई की गतिविधियों से सभी भलीभाँति परिचित हैं ही। उनकी गतिविधियों के पुराने इतिहास में न जाते हुए यदि इसी वर्ष की गतिविधियाँ देखें, तो ज्ञात होता है कि फरवरी में, उत्तर प्रदेश में पीएफआई के दो सदस्यों को भारी मात्रा में विस्फोटक के साथ गिरफ्तार किया गया था। अप्रैल में, हाथरस मामले में पीएफआई के आठ सदस्यों के विरुद्ध चार्जशीट दाखिल हुई। देशद्रोह के साथ-साथ कई अन्य आपराधिक मामले दर्ज़ हैं ही। जून में आयकर विभाग ने नियमों के उल्लंघन का हवाला देते हुए पीएफआई को 80जी के अंतर्गत प्रदत्त लाभ रद्द कर दिए। राष्ट्रीय जाँच एजेंसी (एनआईए), प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) और राज्य पुलिस इसके विरुद्ध सैकड़ों मामलों की जाँच कर रही है। उल्लेखनीय है, एसडीपीआई ने नागरिकता संशोधन अधिनियम (सीएए) का विरोध करते हुए पूरे भारत में प्रदर्शन किए थे। उन्हीं दिनों पिनाराई विजयन ने आरोप लगाया था कि लोगों को विभाजित करने के लिए एसडीपीआई सीएए के विरोध का उपयोग कर रही है। जबकि विश्लेषकों ने इसे केंद्र सरकार के साथ तालमेल बनाए रखने की दृष्टि से दिया गया कूटनीतिक बयान बताया है।

दो राय नहीं कि पीएफआई और पिनाराई विजयन की वैचारिक निकटता है। यह भी कि उनकी बेटी वीना ने डेमोक्रेटिक यूथ फेडरेशन ऑफ इंडिया (डीवाईएफआई) के अध्यक्ष पीए मोहम्मद रियाज़ से निकाह किया है। कम्युनिस्ट और इस्लामिक संगठनों की एकता अन्य राज्यों में भी देखी जा सकती है। यह भी कि भारत में कम्युनिस्ट आंदोलन और लेखन के प्रणेता मुस्लिम समुदाय से ही रहे हैं। वहीं, देखना-सोचना-समझना चाहिए कि इस्लामिक देशों में कम्युनिज़्म का नामोनिशान नहीं है। स्वतंत्रता के बाद कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ पाकिस्तान (सीपीपी) का गठन किया गया था। 'रावलपिंडी षडयंत्र' के मामले में उन नेताओं को जेल में डाल दिया गया था। उन कैदियों में सज्जाद जहीर और फैज़ अहमद फैज़ चर्चित नाम थे। इस घटना के साथ ही पाकिस्तान में कम्युनिस्ट आंदोलन का सुपड़ा साफ़ हो गया था। दुर्भाग्यवश कम्युनिस्टों के लिए भारत उर्वर भूमि बनी रही। इसके अनेकानेक कारण हैं।

अस्तु, यद्यपि इन हत्याओं को 'राजनीतिक हत्याएँ' करार दिया जा रहा है। तथापि 'सांप्रदायिक' पक्ष को अनदेखा नहीं किया जा सकता। कहा जा सकता है कि जहाँ-जहाँ कम्युनिस्ट विचारधारा हावी रही है, वहाँ किसी-न-किसी रूप में रक्तपात होता रहा है। केरल में वर्तमान में लेफ्ट डेमोक्रेटिक फ्रंट (एलडीएफ) की सरकार है। यद्यपि 2021 चुनाव परिणामों के बाद पिनारई विजयन ने "केरल के लोग सांप्रदायिक और विभाजनकारी राजनीति पसंद नहीं करते" कहा था। तथापि यह सत्य है कि हिन्दुओं की चुन-चुन कर हत्याएँ की जा रही हैं।'पिछड़ी हिन्दू जातियाँ और मुस्लिम एकता' का मिथ समय-समय पर टूटता रहता है। रंजीत की हत्या से भी यह मिथ पुनः एक बार टूटा है। सरकार के रुख और रवैये को देखते हुए ऐसा लगता है गोया इन हत्याओं के मामले बदन पर तेल मले हुए पहलवानों की भाँति हैं। पकड़ने जाओ, तो फिसल जाते हैं।

( प्रोफेसर तमिलनाडु केन्द्रीय विश्‍वविद्यालय)

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