अटलजी और गठबंधन धर्म, लोकतंत्र 51बनाम 49 का खेल नहीं

(जयराम शुक्ल)

Update: 2021-12-25 08:24 GMT

वेबडेस्क। भारतीय लोकतंत्र में गठबंधन की राजनीति की विवशता को गठबंधन धर्म विशेषता में बदलने का जो युगांतरकारी काम अटल बिहारी वाजपेयी ने किया है वह संसदीय इतिहास में एक स्वर्णिम अध्याय के रूप में स्मरण किया जाएगा। आजादी के बाद वे डा. राममनोहर लोहिया से भी एक कदम आगे रहे जिन्होंने क्षेत्रीय दलों की अस्मिता को समझा और उनकी राष्ट्रीय स्तर पर प्राण प्रतिष्ठा की।

अटलजी के संसद में दिए गए वक्तव्यों पर केंद्रित पुस्तक 'गठबन्धन धर्म' की भूमिका में अटलजी लिखते हैं- " मैं इस विचार से सहमत नहीं हूँ कि छोटे दल लोकतंत्र की प्रगति में बाधा हैं। छोटे दलों की अपेक्षाओं को राष्ट्रीय स्तर पर पर्याप्त महत्व दिया जाना चाहिए। भारत एक बहुभाषी, बहुधर्मी और बहुजातीय समाज है। छोटे-छोटे जातीय या क्षेत्रीय समूह अपनी पहचान बनाए रखने के इच्छुक रहते हैं। यह देश समृद्ध विविधताओं से भरपूर है। ये विविधताएं अक्सर राजनीतिक क्षेत्र में अभिव्यक्त होती हैं, हमारे समाज की इस जटिल रचना को मानने और स्वीकार करने की जरूरत है, ताकि गठबंधन सरकारें सफलतापूर्वक चलाई जा सकें।.. सभी विभिन्न पहचान वालों को यह अहसास रहना चाहिए कि एकात्म समाज की जरूरत को आगे बढ़ाने के लिए सहयोग करना उनके ही हित में है।"

साठ के दशक के शुरुआती वर्षों में डा.लोहिया ने काँग्रेस के खिलाफ विपक्षी दलों की गोलबंदी शुरू कर दी। एक तरह से गठबंधन की राजनीति के पहले सूत्रधार डा. लोहिया बने। लेकिन उनके एजेंडे में न्यूनतम साझा कार्यक्रम से ज्यादा कैसे भी काँग्रेस की प्रांतीय सरकारों को गिराना था। क्षेत्रीय दल गोलबंद तो हुए और उत्तरप्रदेश समेत कई प्रांतों में साझा सरकारें बनीं भी, लेकिन इस साझेदारी की बुनियाद पर सिद्धांत नहीं सत्ता की बंदरबांट थी। गैर कांग्रेसवाद के विचार का लोहियामिशन उनकी मृत्यु के साथ ही राख में मिल गया।

केंद्र की सरकार के लिए साझा प्रयास पहली बार 1977 में जनतापार्टी के गठन के रूप में हुआ। जनता पार्टी के गठन का आधार सूत्र कोई सिद्धांत नहीं अपितु आपातकाल में मिली प्रताड़ना और जनता के आक्रोश का प्रबल आवेग था।साझा सरकार या गठबंधन का यह प्रयोग गहरा अवसाद देकर विफल हुआ। दस साल बाद 1989 में एक मौका फिर आया। इतिहास में पहली बार दो विपरीत ध्रुव कम्युनिस्ट और भाजपा एक साथ आए पर यह गठबंधन भी बेमेल ब्याह ही साबित हुआ।

गठबंधनों की असफलता की सीख लेते हुए अटलबिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में भाजपा ने क्षेत्रीय अस्मिता का सम्मान और छोटे दलों की राष्ट्रीय भागीदारी के सिद्धांत के साथ पहल शुरू की। 1996 के चुनाव में भाजपा सबसे बड़े दल के तौरपर उभरी राष्ट्रपति शंकरदयाल शर्मा ने सरकार गठन के लिए बुलाया। वो अटल बिहारी वाजपेयी का ही अडिग फैसला था कि बहुमत सिद्ध करने के लिए किसी अनैतिक तरीके का इस्तेमाल नहीं किया गया जबकि प्रमोद महाजन जैसे दिग्गज थे जो एक इशारे पर वैसे ही बहुमत जुटा सकते थे जैसे कि नरसिंहराव सरकार के समय हुआ था। सदन में अटलजी का वह दृढ़निश्चयी वाक्य आज भी उनके चाहने वालों के कानों में गूँज रहा होगा- "हम फिर से आएंगे जनता के विश्वास और जनादेश के साथ।

1996 और 1998 तक देश ने राजनीतिक अस्थिरता का चरम देखा। पहले देवगौड़ा और फिर गुजराल के रूप में दो अल्पजीवी प्रधानमंत्री मंत्री देश ने देखे। कांग्रेस के स्थायी सरकार के दावे के दर्प को तोड़ने वाले शिल्पकार अटल बिहारी वाजपेयी ही थे, जिनके नेतृत्व में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन बना।वाजपेयी जी चुनावपूर्व और चुनाव बाद के गठबंधनों में बुनियादी फर्क मानते थे। चुनाव के पहले का गठबंधन ही वास्तविक राजनीतिक समूह होता है जिसे जनता उसके सिद्धांतों के आधार पर वोट देती है। चुनाव बाद के गठबंधन महज सत्ता की छीना झपटी के लिए होते हैं।

वाजपेयी जी की इस टीस के पीछे 1999 के बजट सत्र में जयललिता द्वारा समर्थन वापस लेने और महज एक वोट से सदन में पराजित होने की वजह से गया। एक वोट जुटाना आज की राजनीति में कोई मुश्किल काम नहीं जहां जनप्रतिनिधि गले में अपने रेट की तख्ती टँगाए घूमते हों। अटलजी संसदीय राजनीति की सुचिता के चरमोत्कर्ष थे। यद्दपि इस एक वोट का पाप भी कांग्रेस के खाते में गया क्योंकि यह एक वोट उड़ीसा में मुख्यमंत्री का पदभार ग्रहण कर चुके गिरधर गमांग का था जिन्होंने लोकसभा से इस्तीफा नहीं दिया था। लोकसभा में एक सांसद मुख्यमंत्री के वोट से 13 महीने में ही वह सरकार गिर गई।  

छोटे दलों के प्रति हिकारत ने ही 1999 में काँग्रेस की सरकार बनने से रोक दिया था यदि मुलायम सिंह को उनकी मंशा के अनुरूप सत्ता में हिस्सा और महत्व मिल गया होता तो इतिहास ही दूसरा होता। बहरहाल फिर चुनाव हुए और इस बार जीत अटल के गठबंधन धर्म की हुई। अटल जी लिखते हैं- " चौबीस दलों के राजग ने इसलिए अनेक सफलताएं हासिल कीं; क्योंकि हमने सहयोग और परस्पर विश्वास से काम किया। गठबंधन की राजनीति का भी एक धर्म है और हमने उस धर्म का पालन किया।"

वाजपेयी सिर्फ़ भाजपा भर के ही नहीं समग्र भारतीय राजनीति के कुशल भाष्यकार थे। अविश्वास प्रस्ताव की बहस पर बोलते हुए उन्होंने कहा था- "लोकतंत्र 51 बनाम 49 का खेल नहीं है । लोकतंत्र मूलतः परंपराओं, सहयोग और सहिष्णुता के आधार पर सत्ता में भागीदार बनाने का तंत्र है।" उनकी राजनीतिक प्रतिस्थापनाएं स्वस्थ लोकतंत्र और संसदीय राजनीति का पथ प्रदर्शन करती रहेंगी।

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