मानस बोध : जिन्ह मोहि मारा ते मैं मारे

डॉ अवधेश त्रिपाठी

Update: 2023-04-11 11:50 GMT

वेबडेस्क।  वैज्ञानिक आइजक न्यूटन ने 1687 में अपने शोधपत्र 'प्राकृतिक दर्शन के गणितीय सिद्धांत के अन्तर्गत गति के नियमों की व्याया की है। गति के तृतीय नियम में वे बतलाते हैं कि 'प्रत्येक क्रिया के बराबर किन्तु विपरीत प्रतिक्रिया होती है।दुनिया उन्हें इन नियमों का जनक मानती है। जबकि मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि उनके इस नियम की प्रेरणा का स्रोत हनुमानजी हैं।

रावण की सभा में जब मेघनाद के द्वारा ब्रह्मास्त्र का प्रयोग कर हनुमानजी को बंधक बनाकर लाया गया तब रावण ने उनसे पूछा था - मारे निसिचर केहि अपराधा, कहुँ सठ तोहि न प्रान कर बाधा। तब हनुमानजी कहते हैं- सबके देह परम प्रिय स्वामी। मारहिं मोहि कुमारग गामी।। जिन्ह मोहि मारा ते मैं मारे। अर्थात् हे रावण ! हर व्यति को अपनी देह प्यारी है। इतने पर भी तुहारे कुमार्ग पर चलने वाले अनुचरों ने मुझे मारा है। इसलिए जिन्होंने मुझे मारा उनको मैंने भी मारा। अत: इसमें मेरा कोई अपराध नहीं बनता है। यह तो क्रिया की प्रतिक्रिया का प्राकृतिक सिद्धांत है। जिन्दा कौम की देह सिर्फ उसका शरीर नहीं होता। शरीर के साथ उसकी आत्मा मिलकर उसकी देह को बनाते हैं। सनातन संस्कृति और सयता के प्रतीकों, त्यौहारों, उत्सवों और जलूसों पर आक्रमण सनातनी लोगों के शरीर और आत्मा पर एक साथ आक्रमण है। जिसकी रक्षा करना उनका परम कर्तव्य है। कोई भी साा जो उन्हें सुरक्षा और संरक्षण नहीं दे सकती उसे उन पर शासन करने का कोई अधिकार नहीं है।

लोकतंत्र में जनता को ऐसी व्यवस्था को उखाड़ फेंकना चाहिए। आजकल सनातन त्यौहारों पर पूर्वनियोजित, व्यवस्थित ढंग से आक्रमण, ऊधम, उपद्रव, पथराव, हिंसा पराधीनता के समय की बात नहीं है। 1947 में द्विराष्ट्रवाद के सिद्धांत पर खंडित सनातन बहुल भारत में सनातन त्यौहारों पर विधर्मियों के आक्रमण या बिना किसी राजनैतिक संरक्षण एवं प्रोत्साहन के सभव हैं ? ऐसे में उनके द्वारा सनातनियों को ही सहिष्णुता का पाठ निरन्तर पढ़ाया जाना या क्रिया की प्रतिक्रिया के प्राकृतिक सिद्धांत का उल्लंघन करने वाला अप्राकृतिक सिद्धांत नहीं है? या यह न्याय के नैसर्गिक सिद्धांत के विरुद्ध नहीं है? या इस अन्याय को सहने वाला समाज अपराधी नहीं है ? यदि आप सनातनी हैं, हनुमानजी के भत हैं, तो उठो, जागो, विचार करो और तद्नुसार कर्म के लिए प्रेरित हो....! जितना यह सत्य है कि प्रत्येक क्रिया के बराबर किन्तु विपरीत प्रतिक्रिया होती है ; उतना ही यह भी सत्य है कि बिना बराबर और विपरीत प्रतिक्रिया के क्रिया को रोका नहीं जा सकता। वह प्रतिक्रिया (दंड) का भय ही होता है जो व्यति को क्रिया (अपराध) करने से रोकता है, न्यायशास्त्र का यह एक सिद्धांत है - भय बिन होय न प्रीत।

योगी आदित्यनाथ ने सुशासन के लिए अपराधियों के मन में भय के वातावरण का निर्माण किया है। इसके लिए वे अभिनन्दन के पात्र हैं। साँप काटे भले ही नहीं, कम से कम उसे फुंकारते रहना चाहिए नहीं तो वह कुचल दिया जायेगा। बाबा तुलसी आगे लिखते हैं - काटै से कदरी फरहि, कोटि जतन कोउ सींच। विनय न मानि खगेस सुन, ड़ांटे पै नब नीच।। अर्थात, काटने पर केला फल देता है, प्रयत्न पूर्वक सींचने से कुछ नहीं होता। ठीक उसी प्रकार नीच व्यति ड़ांटने पर ही समझता है,नीति की प्रेम की बात उसकी समझ में ही नहीं आती। पुरानी कहावत भी है - लातों के भूत बातों से नहीं मानते। न्यायालय कभी भी अपराध को नहीं रोकता, वह अपराध को होने से रोक भी नहीं सकता ; वह तो अपराध के मूल में जाकर क्रिया की प्रतिक्रिया करने की आधिकारिक एवं प्रामाणिक संस्था है। अत: वह स्वत: संज्ञान लेकर भी संविधान एवं न्याय का संरक्षण कर अपनी सार्थकता एवं उपस्थिति दर्ज करा सकता है।

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