कर्नाटक सरकार में पिण्ड दान और हिन्दू सनातन परम्परा
-डॉ. मयंक चतुर्वेदी
खबर कर्नाटक राज्य से जुड़ी है, किंतु यह कोई छोटी खबर नहीं, जन की दृष्टि से राज्य के लोक प्रशासन का यह श्रेष्ठ उदाहरण है। लोक कल्याणकारी राज्य की जिस उदात्त कल्पना के माध्यम से भारतीय संविधान राज्यों के कर्तव्य एवं कार्यों की चर्चा करता है, यह उस मामले में भी एक अच्छा उदाहरण है। वास्तव में कर्नाटक सरकार ने हिन्दू सनातन परम्परा के अनुरूप कोरोना में अपनी जांन गवां चुकों का जो 'पिंडा प्रदाना' कार्यक्रम किया है। वह अपने आप में अन्य राज्यों के लिए भी अनुकरणीय है, जहां बहुसंख्यक हिन्दू सनातन समाज की भावनाओं का अनेकों को बार तिरस्कार होते हुए देखा गया है। कर्नाटक की सरकार ने अपने यहां के 1,200 कोविड -19 पीड़ितों के लावारिस शवों के लिए श्रद्धा के साथ कावेरी नदी के तट पर पिंड दान किया है।
वस्तुत: भारत में जितनी भी सनातन परम्पराएं हैं वह अरण्य और नदि संस्कृति में ही विकसित हुई हैं। जिसमें कि मनुष्य का मोक्ष तब तक नहीं स्वीकार्य है जब तक कि वह उसमें समाहित नहीं हो जाता। फिर वह जीवित हो, मरने के बाद या अस्थी और राख बनकर उसकी देह का समर्पण ही क्यों ना हो । महत्व यह रखता है कि वह अंत में किसी भी रूप में ही सही, नदी अथवा जल के पवित्र स्थान में अपना विसर्जन करे । भारत की तमाम नदियों की तरह ही काबेरी दक्षिण में मोक्ष दायिनी है। विशाल इतनी है कि जब उसकी विशालता को मनुष्य सामने से देखता है तो लगता है, जैसे समुद्र ही कहीं सामने से दौड़ा चला आ रहा है और कहीं-कहीं शांत इतनी कि बांस की लकड़ी से मनुष्य उसे पार करता हुआ सहज दिख जाता है।
सचमुच कावेरी दक्षिण भारत की मुक्ति दायिनी है । हिन्दुओं का प्रमुख तीर्थ स्थान "तिरुचिरापल्ली" कावेरी नदी के तट पर ही है। कावेरी के पवित्र जल ने कितने ही संतों, कवियों, राजाओं, दानियों और प्रतापी वीरों को जन्म दिया है। कावेरी के किनारे ही भगवान विष्णु के तीन प्रसिद्ध मन्दिर हैं जिनमें वे अनंतनाग पर शयन करते हुए विराजे हैं । इसलिए ये क्षेत्र श्रीरंगपट्रणम 'आदिरंगम', शिवसमुद्रम मध्यरंगम और तमिलनाडु के तिरुचिरापल्ली में श्रीरंगम है। हिन्दू सनातन परम्परा में विष्णु, शैव और शाक्त तीनों का संगम है कावेरी ।
शैव धर्म के कितने ही तीर्थ, चिदम्बरम, जंबुकेश्वरम, तिरुवैयारु, कुंभकोणम, तंजावूर शीरकाल, मातृभूतेश्वर जैसे श्रेष्ठ मंदिर हैं इसके किनारे। जैन धर्म को भी अपने आंचल में पोषित करनेवाली मां यही कावेरी है। वैष्णव आचार्य रामानुज, तिरुमंगै आलवार जैसे वैष्णव संतों की को आश्रयस्थली है कावेरी । सोलह वर्ष की आयु में शैव धर्म का देश-भर में प्रचार करनेवाले संत कवि ज्ञानसंबंधर को ज्ञान भी इसी कावेरी की गोद में मिला। तो महाकवि कंबन तमिल भाषा में रामायण की रचना इसके आनन्द से भर देनेवाले तट के किनारे ही कर पाए थे। फिर दक्षीण संगीत को नये प्राण देनेवाले संत त्यागराज, श्यामा शास्त्री और मुत्तय्य दीक्षित ही क्यों ना हों, इन सभी का प्रताप भी कावेरी की ही देन है। यह सिर्फ एक पानी को बहानेवाली नदी नहीं, यह तो अनेक संस्कृतियों को अपने में समेटे उन्हें एक-साथ गुंफित कर विराट भारतीय संस्कृति है।
वस्तुत: इसके परिक्षेत्र में रहनेवाले हर सनातनी की यही अंतिम इच्छा रहती है, हमारा अस्तित्व किसी भी रूप में सही वह कावेरी का अंग अवश्य बने। जीते जी ना सही मरने के बाद ही सही हमारी देह इसमें समा जाए। यहां कहना होगा कि हिन्दू सनातन की समस्त भौतिक-अभौतिक क्रियाओं के पीछे वैज्ञानिकता भी है। कुछ मामलों में तो यह प्रकट हो चुकी है और कुछ में आधुनिक विज्ञान इसे प्रकट करने का प्रयास कर रहा है। मृत्यु के बाद पिंड दान करने की हिन्दू परम्परा भी इस श्रेणी में है, जिसके रहस्य को जानने में अभी आधुनिक विज्ञान को समय लग रहा है, किंतु हमारे पूर्वजों ने जिस तरह की सौर गणना करते हुए पिण्डदान का विधान किया है, वह पूरी तरह से व्यवहारिक और वैज्ञानिक है।
श्राद्ध कर्म में पिण्डदान हमारी श्रद्धा से जुड़ा है। श्राद्ध आत्मा के गमन जिसे संस्कृत में प्रैति कहते हैं का ही पर्याय है। प्रैति ही बाद में लोक भाषा में भूत-प्रेत बन गया, जबकि यह आत्मा और मन है। जब शरीर छूटता है तो प्राण तत्व मन को लेकर बाहर निकलता है। किंतु मोह वश वह मृत हुई अपनी देह के इर्द-गिर्द ही घूमता है। शरीर के अग्नि में समाहित होने के बाद भी प्राण मन के साथ उस देहआत्मा के बन्धु-बान्धव यानी कि कुटुम्ब के साथ एक मय रहता है। मन के बारे में शास्त्र कहते हैं कि मन चंद्रमा से जुड़ा है। यह चंद्रमा से आता है और चंद्रमा में ही जाता है ।
कहा भी गया है, चंद्रमा मनस: लीयते या चंद्रमा मनसो जात: अर्थात मन ही चंद्रमा का कारक है, इसलिए जब मन खराब होता है तो उसे अंग्रेजी में ल्यूनैटिक कहते हैं। ल्यूनार का अर्थ चंद्रमा है और इससे ही ल्यूनैटिक शब्द की निष्पत्ति हुई है। यह चंद्रमा वनस्पति का भी कारक है। यही कारण भी है जो रात में वनस्पति अधिक वृद्धि करती हैं। जो अन्न हम सभी खाते हैं, उससे रस बनता है। रस से रक्त बनता है। रक्त से मांस, मांस से मेद, मेद से मज्जा और मज्जा के बाद अस्थि बनती है। अस्थि के बाद वीर्य बनता है। वीर्य से ओज बनता है। ओज से मन बनता है। इस प्रकार चंद्रमा से मन बनता है। इसलिए भारतीय शास्त्रों में चंद्रमा और मन को लेकर बहुत कुछ लिखा गया है। जैसा अन्न आप खाएंगे वैसा ही मन आपका बनेगा । मन की यात्रा चंद्रमा तक की है ।
दाह संस्कार के समय चंद्रमा जिस नक्षत्र में है, प्राण मन को उस ओर ही लेकर जाता है । चंद्रमा 27 दिनों के अपने चक्र में क्रमश: 27 नक्षत्रों में घूमता है, और अट्ठाइसवें दिन फिर से उसी नक्षत्र में आ जाता है। मन की यह 28 दिन की यात्रा है। इसलिए मासिक श्राद्ध और पिण्ड दान का विधान हिन्दू सनातन व्यवस्था ने किया है। इसी के साथ यहां पिण्ड दान में चावल एवं अन्य अन्नों के महत्व को भी समझते चलते हैं।
वस्तुत: चंद्रमा सोम का कारक है। इसलिए उसे सोम कहा गया । सोम सबसे अधिक चावल में पाया जाता है। सोम तरल दृव्य है, धान भी सदैव पानी में डूबा रहता है। चावल के आटे का पिंड भी इसीलिए बनाया जाता है, तिल और जौ भी इसमें मिलाते हैं, फिर पानी और घी भी मिलाया जाता है, जिससे कि इसमें और भी अधिक सोमत्व आ जाता है। हिन्दू शास्त्रों के अनुसार शरीर के अंग-प्रत्यांगों में हथेली के ऊपरी भाग अंगूठे और तर्जनी के मध्य में नीचे का उभरा हुआ स्थान शुक्र स्थान है। शुक्र से ही हम जन्म लेते हैं और हम शुक्र ही हैं, इसलिए वहाँ पिण्डदान करते समय कुश रखा जाता है। कुश ऊर्जा का कुचालक होता है। श्राद्ध करने वाला इस कुश पर पिंड को रखता है फिर उसे सूंघता है। ऐसा करने के पीछे का भाव यह है कि उसका और उसके पितर का शुक्र जुड़ा हुआ है, इसलिए वह श्रद्धाभाव से आकाश की ओर देख कर, सूंघकर उसे पितरों को समर्पित करता है और पिंड को जमीन पर गिरा देता है। ऐसा करने से पितरों को ऊर्जा मिलती है ।
इस तरह से हम सनातनी प्रैति या प्रेत को उसके गंतव्य स्थान चंद्रमा तक पहुँचाने की व्यवस्था करते हैं। इसलिए पिंडदान षोडश संस्कार में अंतिम संस्कार का एक महत्वपूर्ण विधान है। इस क्रिया के बाद से फिर मोक्ष की यात्रा शुरू हो जाती है, चंद्रमा में जाते ही मन का विखंडन हो जाएगा। मोक्ष का यही रास्ता है। उसके बाद फिर देहआत्मा पुनर्जन्म लेगी अथवा नहीं, यह उसके सिंचित कर्मों पर निर्भर करता है।
वस्तुत: कर्नाटक सरकार द्वारा मांड्या जिले में श्रीरंगनपट्टन के पास कावेरी नदी के तट, गोसाई घाट पर राजस्व मंत्री आर. अशोक, मांड्या जिले के उपायुक्त एस. अश्वथी, सरकार के अवर सचिव मंजूनाथ प्रसाद और खेल एवं युवा मामलों के मंत्री नारायण गौड़ा के माध्यम से जो लावारिस शवों के लिए 'पिंडा प्रदाना' समारोह आयोजित किया है, उसके लिए आज उसकी जितनी सराहना की जाए वह कम ही होगी। वास्तव में मोक्ष के अधिकारी हम सभी हैं। लोक कल्याणकारी राज्य की इससे अच्छी कोई भूमिका नहीं हो सकती है, जहां लावारिसों के अंत समय के बाद उनके लिए सद्गति की व्यवस्था तक की गई ।
लेखक सेंसर बोर्ड एडवाइजरी कमेटी के पूर्व सदस्य एवं पत्रकार हैं।