वीर बाल दिवस: धर्म औऱ राष्ट्र के लिए बलिदान की प्रेरक कथा
(डॉ राघवेंद्र शर्मा)
वेबडेस्क। देश की आजादी के लिए विदेशी आक्रांताओं से लड़ने, उनके सिर उतारने और अपनी शहादत देने का इतिहास बलिदानियों के नामों से भरा पड़ा है। पता नहीं क्यों हमारे इतिहासकार स्वतंत्रता संग्राम की शुरुआत ए ओ ह्यूम द्वारा कॉन्ग्रेस स्थापित किए जाने से बताते हैं। वहीं इस विशुद्ध राजनीतिक दल के नेताओं द्वारा यह दावे किए जाते रहते हैं कि देश को आजादी उन्हीं की बदौलत मिली। जबकि यह पूरी सच्चाई नहीं है।
वास्तविकता यह है कि जैसे-जैसे विदेशी आक्रांता भारतीय नक्शे पर अपना अधिपत्य स्थापित करने के षड्यंत्र रचते गए, वैसे वैसे देशभक्त स्वतंत्रता संग्राम सेनानी या तो शत्रुओं के सिर कलम करते रहे या फिर अपने शीश भारत माता को अर्पित करते चले गए। इन्हीं में विलक्षण शहीद हैं सिख समाज के ही नहीं अपितु सर्व हिंदू समाज के संरक्षक गुरु गोविंद सिंह जी तथा उनके चार साहिब जादे। चार साहिबजादों के नाम 17 साल के बाबा अजीत सिंह, 14 साल के बाबा जुझार सिंह, 9 साल के बाबा जोरावर सिंह और 7 साल के बाबा फतेह सिंह हैं। सभी जानते हैं कि गुरु गोविंद सिंह जी का जीवन दर्शन और उनकी शहीदी का एक गौरवशाली इतिहास रहा है। लेकिन उनके चारों शहजादों की शहीदी भी यह सत्य स्थापित करती है कि इस देश की आजादी में किसी संगठन विशेष अथवा परिपक्व नेताओं का ही अकेला योगदान नहीं है। बल्कि इस बेशकीमती आजादी के लिए भारत माता के उन मासूम बच्चों ने भी अपनी कुर्बानी दी है, जिन्होंने ठीक से इस दुनिया को देखा भी नहीं था। उनमें सर्व शिरोमणि हैं गुरु गोविंद सिंह जी के यह चारों साहिब जादे। इन चार में से दो बड़े साहिब जादे बाबा अजीत सिंह और बाबा जुझार सिंह अपने परम प्रतापी पिताजी श्री गुरु गोविंद सिंह की आज्ञा से चमकौर की जंग में शामिल हुए। वह जिस दल के साथ हजारों मुगल सैनिकों के सिर काटने निकले थे, उस बेड़े में कुल 40 सिख मौजूद थे। जिन्होंने मुगल सेना का काफी नुकसान किया और हजारों आक्रांताओं के सिर काटते हुए शहीदी को प्राप्त हो गए।
इस जंग में गुरु गोविंद सिंह के दोनों साहिब जादे बाबा अजीत सिंह और बाबा जुझार सिंह भी 6 दिसंबर 1705 के दिन देश के काम आए। शेष रह गए बाबा जोरावर सिंह और बाबा फतेह सिंह। इन दोनों ने भी छोटी सी उम्र में ही बड़े संकटों का सामना किया । धर्म छोड़ने के लिए पहले इन दोनों को एक से बढ़कर एक लालच दिए गए। किंतु जब मुगल शासक निराश हो गए तो दोनों साहिब जादों को कठोर यातनाएँ दी गयीं। परन्तु ये दोनों वीर अपने धर्म पर अडिग रहे । आनंदपुर के युद्ध में गुरू जी का परिवार बिखर गया। और दोनों छोटे पुत्र अपनी दादी माता गुजरीदेवी के साथ अन्यत्र बिछुड़ गये । आनंदपुर छोड़ने के बाद फतेह सिंह एवं जोरावर सिंह अपनी दादी के साथ जंगलों, पहाड़ों को पार करके मूरिंज नगर में पहुँचे । नगर में उन्हें गंगू नामक ब्राह्मण मिला, जो बीस वर्षों तक गुरूगोविंद सिंह के पास रसोईये का काम कर चुका था । उसने माता गुजरीदेवी और दोनों साहिबजादों को अपने घर ले जाने का आग्रह किया । पुराना सेवक होने के नाते माता जी दोनों नन्हें बालकों के साथ गंगू ब्राह्मण के घर चलने को तैयार हो गईं । माता गुजरीदेवी के सामान में कुछ सोने की मुहरें थीं, जिन्हें देखकर गंगू के मन में लालच आ गया। उसने मोहरे तो चुराईं ही, और अधिक इनाम पाने की लालच में मुरिंज थाना पहुँचा और वहाँ के कोतवाल को बता दिया कि गुरूगोविंद सिंह के दो पुत्र एवं माता उसके घर में छिपी हैं। कोतवाल ने दोनों बालकों सहित माता गुजरीदेवी को बंदी बना लिया । एक रात उन्हें मुरिंडा की ठंडी बुर्ज में रखकर दूसरे दिन सरहिंद के नवाब के पास ले जाया गया । इस बीच माता गुजरीदेवी दोनों बालकों को उनके दादा गुरू तेग बहादुर एवं पिता गुरुगोविंदसिंह की वीरतापूर्ण कथाएँ सुनाती रहीं ।
सरहिंद पहुँचने पर भी उन्हें किले के एक हवादार बुर्ज में भूखा प्यासा रखा गया । वहां हड्डियों को कड़कड़ा देने वाली ठंडी हवा भूखे प्यासे शरीर को झकझोर रही थी। किंतु यात्राओं से बेअसर माता गुजरीदेवी दोनों साहिब जादों को रात भर वीरता एवं अपने धर्म में अडिग रहने के लिए प्रेरित करती रहीं । वे जानती थीं कि मुगल सर्वप्रथम बच्चों से धर्मपरिवर्तन करने के लिए कहेंगे । दोनों बालकों ने अपनी दादी को भरोसा दिलाया कि वे अपने पिता एवं कुल की शान पर दाग नहीं लगने देंगे तथा अपने धर्म में अडिग रहेंगे । सुबह सैनिक बच्चों को लेने पहुँच गये। दोनों बालकों ने दादी के चरणस्पर्श किये एवं सफलता का आशीर्वाद लेकर चले गए । दोनों बालक नवाब वजीरखान के सामने पहुँचे तथा सिंह की तरह गर्जना करते हुए वाहे गुरु जी का खालसा, वाहे गुरू जी की फतेह का उद्घोष किया। चारों ओर से शत्रुओं से घिरे होने पर भी इन नन्हें शेरों की निर्भीकता को देखकर सभी दरबारी दाँतो तले उँगली दबाने लगे । शरीर पर केसरी वस्त्र एवं पगड़ी तथा कृपाण धारण किए इन नन्हें योद्धाओं को देखकर एक बार तो नवाब का हृदय कांप उठा। उसने दोनों साहिब जादों से कहा तुम बड़े सुन्दर दिखाई दे रहे हो, तुम्हें सजा देने की इच्छा नहीं होती । हम तु्म्हें नवाबों की तरह ऐशो आराम के साथ रखना चाहते हैं। परंतु एक छोटी सी शर्त है कि तुम अपना धर्म छोड़कर मुसलमान बन जाओ । वह समझता था कि इन बच्चों को मनाना ज़्यादा कठिन नहीं है। परन्तु वह यह भूल बैठा था कि भले ही वे बालक हैं। परन्तु कोई साधारण नहीं, अपितु गुरू गोविंदसिंह के सपूत हैं। वह भूल बैठा था कि इनकी रगों में उस वीर महापुरूष का रक्त दौड़ रहा है जिसने अपना समस्त जीवन धर्म की रक्षा में लगा दिया था ।
नवाब की बात सुनकर दोनों भाई निर्भीकता पूर्वक बोले ,हमें अपना धर्म प्राणों से भी प्यारा है । जिस धर्म के लिए हमारे पूर्वजों ने अपने प्राणों की बलि दे दी उसे हम तुम्हारी लालच भरी बातों में आकर छोड़ दें, यह कभी नहीं हो सकता। नवाब ने दूसरी चाल खेली । उसने बच्चों से कहा कि तुमने हमारे दरबार का अपमान किया है । हम चाहें तो तुम्हें कड़ी सजा दे सकते हैं परन्तु तु्म्हे एक अवसर फिर से देते हैं । अभी भी समय है यदि ज़िंदगी चाहते हो तो मुसलमान बन जाओ। नवाब अपनी बात पूरी करे इससे पहले ही ये नन्हें वीर गरज कर बोल उठे - हम उन गुरू तेग बहादुर जी के पोते हैं जो धर्म की रक्षा के लिए कुर्बान हो गये। हम उन गुरू गोविंदसिंह जी के पुत्र हैं जिनका नारा है चिड़ियों से मैं बाज लड़ाऊँ, सवा लाख से एक लड़ाऊँ । जिनका एक-एक सिपाही तेरे सवा लाख गुलामों को धूल चटा देता है, जिनका नाम सुनते ही तेरी सल्तनत थर-थर काँपने लगती है । तू हमें मृत्यु का भय दिखाता है । हम फिर से कहते हैं कि हमारा धर्म हमें प्राणों से भी प्यारा है। हम प्राण त्याग सकते हैं परन्तु अपना धर्म नहीं त्याग सकते।
इतने में वहां मौजूद दीवान सुच्चानंद ने बालकों से पूछा - यदि हम तुम्हे छोड़ दें तो तुम क्या करोगे? तब बाबा जोरावर सिंह ने कहा कि हम सेना इकट्ठी करेंगे और अत्याचारी मुगलों को इस देश से खदेड़ने के लिए युद्ध करेंग। दीवान ने फिर पूछा कि यदि तुम हार गये तो ? इस पर बाबा जोरावर सिंह ने कहा कि हार शब्द हमारे जीवन में नहीं है । हम हारेंगे नहीं, या तो विजयी होंगे या शहीद फिर शहीद। बालकों की वीरतापूर्ण बातें सुनकर नवाब आग बबूला हो उठा । उसने काजी से कहा इन बच्चों ने हमारे दरबार का अपमान किया है तथा भविष्य में मुगल शासन के विरूद्ध विद्रोह की घोषणा की है। ये बालक मुगल शासन के दुश्मन हैं और इस्लाम को स्वीकार करने को भी तैयार नहीं हैं। अतः इन्हें जिन्दा दीवार में चुनवा दिया जाये। शैतान नवाब तथा काजी के क्रूर फैसले के बाद दोनों बालकों को उनकी दादी के पास भेज दिया गया। बालकों ने उत्साहपूर्वक दादी को पूरी घटना सुनाई। बालकों की वीरता को देखकर दादी गदगद हो उठी और उन्हें हृदय से लगाकर बोली, मेरे बच्चों! तुमने अपने पिता की लाज रख ली। दूसरे दिन दोनों वीर बालकों के चारों ओर दीवार बननी प्रारम्भ हो गयी । धीरे-धीरे दीवार उनके कानों तक ऊँची उठ गयी । इतने में बड़े भाई जोरावरसिंह ने अंतिम बार अपने छोटे भाई फतेहसिंह की ओर देखा और उसकी आँखों से आँसू छलक उठे ।
जोरावर सिंह की इस अवस्था को देखकर वहाँ खड़ा काजी बड़ा प्रसन्न हुआ। उसने समझा कि ये बच्चे मृत्यु को सामने देखकर डर गये हैं । उसने अच्छा मौका देखकर जोरावरसिंह से कहा, बच्चों ! अभी भी समय है । यदि तुम मुसलमान बन जाओ तो तुम्हारी सजा माफ कर दी जाएगी। इस पर बाबा जोरावर सिंह ने गरजकर कहा, मूर्ख काजी ! मैं मौत से नहीं डर रहा हूँ। मेरा भाई मेरे बाद इस संसार में आया परन्तु मुझसे पहले धर्म के लिए शहीद हो रहा है । मुझे बड़ा भाई होने पर भी यह सौभाग्य नहीं मिला, इसलिए मुझे रोना आता है। सात वर्ष के इस नन्हें से बालक के मुख से ऐसी बात सुनकर सभी दंग रह गये। थोड़ी देर में दीवार पूरी हुई और वे दोनों नन्हें धर्मवीर उसमें समा गये । कुछ समय पश्चात दीवार को गिरा दिया गया। दोनों बालक बेहोश पड़े थे, परन्तु अत्याचारियों ने उसी स्थिति में उनकी हत्या कर दी। बाद में दोनों साहिब जादों की शहादत ने आजादी की लड़ाई में चिंगारी का काम किया जिसमें मुगल सल्तनत जलकर खाक होती रही। केंद्र में स्थापित भारतीय जनता पार्टी की नरेंद्र मोदी सरकार ने इस दिन को वीर बाल दिवस के रूप में मनाने का ऐलान किया है। बता दें कि 26 दिसंबर 1705 को इन दोनों साहिब जादों को शहीदी प्राप्त हुई थी। इस बेहद पवित्र दिवस के अवसर पर गुरु गोविंद सिंह जी और उनके चारों साहिब जादों को शत-शत नमन।