सनातन धर्म और चमत्कार

ओमप्रकाश श्रीवास्ताव आईएएस अधिकारी तथा धर्म, दर्शन और सहित्य के अध्येतता

Update: 2023-01-29 09:06 GMT

वेबडेस्क। सनातन धर्म का आधार वेद हैं। वेद के अनुसार इस सृष्टि का आधार एकमेव ब्रह्म है । 'ब्रह्म' और उसकी शक्ति'माया' के द्वारा सृष्टि का उद्भव होता है। ब्रह्म चेतन है जबकि सृष्टि जड़ है। सृष्टियों का उद्भव और विलीन होनें का खेल चलता रहता है परंतु ब्रह्म का अस्तित्व्ा ह सदैव रहता है। सभी वैदिक दर्शन इस मूल सिद्धांत को मानते हैं परंतु उनमें इतना ही अंतर है कि वे ब्रह्म, माया, जीव और सृष्टि की व्याइख्याह अलग-अलग दृष्टिकोण से करते हैं। कोई दर्शन इसे पुरुष और प्रकृति कहता है, तो कोई आत्माृ और अनात्माा, तो कोई सत् और असत् ।

हम सब भी सृष्टि के अंग हैं। इस प्रकार हमारा शरीर तो जड़ पंचमहाभूतों से बनाहै परंतु इसमें ब्रह्म का अंश 'आत्मार' के रूप में चेतना प्रदान कर रहा है इसलिए गति है, विचार है, अनुभव हैं। जैसे ही मृत्युद होती है, चेतना के अभाव में शरीर भी समाप्तह होकर पंचतत्वोंें में मिल जाता है। जड़ सृष्टि से परे चेतनसत्ताअ का अनुभव करना और उसी में एकत्व् प्राप्तन कर लेना ही सनातन धर्म का लक्ष्य है ।

सनातन धर्म ब्रह्म तक पहुँचने के साधन के रूप में जगत् की अनिवार्यता को स्वीनकार करता है इसलिए धर्म के दो पहलू हैं भौतिक प्रगति (अभ्यु दय) और आंतरिक प्रगति (नि:श्रेयश) - यतोsभ्युअदय नि:श्रेयस सिद्धि: स धर्म: (वैशेषिक दर्शन)। एक के बिना दूसरा संभव नहीं है। सनातनधर्म का उद्देश्यत संसार में सुखी, वैभवशाली जीवन जीते हुए ईश्वदर को प्राप्त् करना है। तुलसीदास जी ने कहा है –सुर दुर्लभ सुख करि जग माहीं। अंतकाल रघुपति पुर जाहीं।अभ्युशदय भौतिक जगत् में होता है इसलिए इसमें प्रकृति के नियम काम करते हैं और नि:श्रेयश आंतरिक जगत् में होता है इसलिए इसमें अध्याेत्मे के नियम काम करते हैं। पूरी सृष्टि नियमबद्ध है, इसे वेदों में ऋत् कहा गया है। जैसे सूर्य का उदय और अस्तत होना, जन्म के बाद मृत्युे होना, बीज का वृक्ष बनकर फिर बीज बनना आदि। इनका कोई अपवाद नहीं है। जब हम नियम जानते हैं तो यह परिवर्तन सामान्यय लगते हैं परंतु जब नियमों से अनभिज्ञ होते हैं तो जो घटना तर्क और बुद्धि से समझ में नहीं आती उसे चमत्कामर कहते हैं।

प्रकृति जड़ है इसलिए नियमों से चलती है और इनका कोई अपवाद नहीं होता । गुरुत्वाहकर्षण के कारण वृक्ष से फल नीचे ही गिरेगा। यदि इसे ऊपर जाना है तो विपरीत बल की जरूरत पड़ेगी। इसका अपवाद नहीं हो सकता। इसलिए भौतिक जगत में कोई चमत्काजर नहीं होता, सब के पीछे सुनिश्चित कारण होता है। जब तक भौतिक घटना के कारण की खोज नहीं की गई तब तक वह चमत्का र लगता है और कारण ज्ञात होते ही विज्ञान बन जाता है। बचपन की कहानी में बुढि़या जादूगरनी जादुई आईने में सारी घटनाएँ देखती थी तब हमें चमत्कातर लगता था अब वही हम मोबाइल में देख रहे हैं, अब वह सामान्यी बात है।कभी इंसान का हवा में उड़ना कल्पुना था अब हवाई जहाज तो चमत्काफर नहीं लगते। अभी भी भौतिक संसार में कुछ चमत्का र लग रहा है तो या तो विज्ञान के उस नियम की खोज नहीं हुई या हम इतने मूढ़ हैं कि कुछ समझना ही नहीं चाहते।

दूसरी ओर, आंतरिक जगत् के भी नियम हैं । कर्म का सिद्धांत उनमें से एक है। जन्मी-जन्मां तरों की यात्रा मेंकिये गयेकर्म और उनके फलस्वसरूप निर्मित प्रारब्धा का फल मिलता रहता है। इस पिछली यात्रा को हम नहीं जानते इसलिए कभी-कभी यह भी चमत्कारर प्रतीत होता है परंतु होता नियमबद्ध ही है। यह नियम ही अध्यासत्मा कहलाते हैं। जिस प्रकार गुरुत्वातकर्षण को जानकर उससे पार जाने वाले अंतरिक्ष यान बना लिए गए उसी प्रकार अध्या्त्मष के नियमों को जानकार उनका पालन करके जगत के पार ब्रह्म तक की यात्रा संभव हो जाती है। आंतरिक चेतन जगत हमारे जड़ शरीर में है इसलिए जड़ शरीर पर प्रकृति के और आंतरिक जगत में अध्याकत्मम के नियम लागू होते हैं। इस प्रकार हमारा जीवन इन दोनों नियमों के संयोग से चलता है।

तीसरी स्थिति और है, वह है ब्रह्म की इच्छा , जो सर्वोपरि है। वेद कहते हैं कि ब्रह्म ने इच्छाथ की और वह एक से अनेक रूपों में प्रकट हो गया –एकोहम् बहुस्यािम:(छांदोग्ये उपनिषद)। यह इच्छाह क्यों की? इसका कोई कारण किसी को पता नहीं है। वेद भी इसमें अपनी अनभिज्ञता स्वीहकार करते हैं। ब्रह्म की माया शक्ति इशारे मात्र से सृष्टि का निर्माण कर देती है –भृकुटि विलास जासु जग होई– उसके लिए जड़ जगत में चमत्का र करना खेल ही तो है।हमारी चेतना ब्रह्म का अंश है। वह जड़ नहीं है, इसलिए नियम तो हैं परंतु कभी-कभी कुछ अपवाद उस चेतनसत्ता् की इच्छाह से होते हैं ।इसे ही तुलसीदास जी कहते हैं –उमा दारु जोषित की नाईं।सबहि नचावत राम गोसाईं। गीता में कृष्णत कहते हैं कि वह माया के द्वारा प्राणियों को यन्त्राचलित की तरह घुमाते हैं–भ्रमयन् सर्वभूतानां यन्त्रा रूढानि मायया (गीता 18.61)। जब ऐसी घटना हमारे अनुकूल होती है तो उसे ईश्व्र की कृपा कहते हैं और जब प्रतिकूल होती है तो उसे ईश्वसर का कोप कहते हैं।इसका कोई कारण समझ में नहीं आतापरंतु हो सकता है चेतना की ऊँचाइयों पर जाने पर इसका कारण जन्मे-जन्मांततरों की यात्रा से निकल आए। तब तक तो यह ईश्वइर की इच्छाह ही है और हमारे लिए चमत्का र। परंतु ब्रह्म कोई निरंकुश तानाशाह नहीं है जो कुछ भी इच्छात करने लगे। सनातनधर्म, ब्रह्म को ज्ञानस्वकरूप मानता है। परम सत्यक के ज्ञानका मार्ग सदैव बुद्धि, विवेक औरश्रद्धा से होकर जाता है। इसलिए ज्ञानस्व रूप ईश्वमर की इच्छाे भी सत्य पर आधारित होती है भले ही हम उसे न जानें और चमत्कातर मान लें।

इस प्रकार सनातनधर्म चमत्कासरों को तीन दृष्टियों से देखता है – भौतिक जगत में विज्ञान के रूप में, आंतरिक जगत में आध्याृत्मिक नियमों के रूप में और सर्वोपरि ईश्वछर की इच्छाक के रूप में। भौतिक जगत के चमत्कातर का अस्तित्व् ज हमारी अज्ञानता और मूर्खता के कारण है। सांसारिक लोभ, मोह, स्वाकर्थ में आसक्तग मनुष्यव में वैराग्यन और ईश्वार प्राप्ति की आकांक्षा पैदा होना क्याभ चमत्काोर नहीं है? ऐसा चमत्कातर आंतरिक जगत में तभी होता है जब पात्रता विकसित होती है और ऐसी पात्रता उपासना, तप, निष्कातम कर्म आदि के माध्यहम से चित्ततशुद्धि होने पर आती है। ईश्वतरीय चमत्का्र उस परम चेतना की इच्छा् से होते हैं और इनके लिए ही हम सदैव ईश्वदर से प्रार्थना करते हैं। ऐसे चमत्काीर को तुलसीदास जी 'कारन बिनु रघुनाथ कृपाला' और वेद ईश्वेर की 'अहैतुकी कृपा' कहते हैं।

जैसे गुरुत्वारकर्षण का नियम अंतरिक्ष में जाने वाली वस्तुै को रोकने का प्रयास करता है इसी तरह प्रकृति भी अपने जाल से छूटकर परम चेतना की ओर यात्रा करने वाले साधक को तरह-तरह के विघ्नज डालकर रोकती है। तुलसीदास जी कहते हैं कि जब आत्माकनुभव की यात्रा होती है तो माया, रिद्धि-सिद्धि के माध्य्म से प्रलोभन देती है–रिद्धि सिद्धि प्रेरइ बहु भाई। बुद्धिहि लोभ दिखावहिं आई।। साधक को कुछ सिद्ध्यिाँ प्राप्तय हो जाती हैं जिनसे उसे मान-सम्माहन,प्रसिद्धि और ऐश्वँर्य प्राप्त् होता है और वह इनमें उलझकर अपनी साधना से पतित होने के साथ-ही-साथ अन्यि लोगों को चमत्काारों से प्रभावित कर सनातनधर्म के मार्ग से विमुख कर देता है। इसलिए सनातनधर्म में चमत्कायर और सिद्धियों को निकृष्टक मानकर उनसे बचने की सलाह दी गई है।

जो विश्वाटस पर आधारित रिलीजन, मजहब, पंथ हैं वे चमत्कायरों पर विश्वातस करते हैं। पर सनातनधर्म तो बोध का धर्म है (बोध, तर्क और विज्ञान के ऊपर की अवस्था‍ है, अंधविश्वा स का तो प्रश्नब ही नहीं है), चमत्काअर तो उसके मार्ग के कील-कंटक हैं जिन्ंद्ध हटाने के बाद ही आगे की यात्रा ही संभव होती है। गीता में भगवान् कहते हैं कि हम स्वअयं ही अपने उत्थाहन-पतन के लिए जिम्मेोदार हैं - उद्धरेद् आत्ममनात्मा नम् आत्मा नम् अवसादयेत्(गीता 6.5), ईश्वमर न पुण्यत देता है न पाप देता है (नादत्तेत कस्यतचित् पापं न चैव सुकृतं विभु: (गीता 5.15)। ऐसे हजारों संदेश सनातनधर्म के ग्रंथों में दिये गये हैं।

जड़ प्रकृति में चमत्का्र नहीं होते इसलिए जोशीमठ की दरारों को कोई चमत्का र से नही भर सकता। वहाँ विज्ञान ही काम आएगा। शरीर स्थूरल पंचतत्वोंा स से मिलकर बना हैजिसके तीन स्तरर हैं – स्थू्ल शरीर, शूक्ष्मन शरीर और कारण शरीर।इसीमें चेतना का निवास है। शरीर की बीमारी का कारण स्थू ल शरीर में हो सकता है और शूक्ष्मम शरीर में भी। शूक्ष्मर शरीर के कारण को ही आधुनिक भाषा में बीमारी का मनोवैज्ञानिक कारण कहते हैं। इस कारण को विचारों में परिवर्तन से ठीक किया जा सकता है, जैसा कि गीता में कृष्णू ने अर्जुन को उपदेश देकर किया। प्रकृति से बने शरीर की बीमारी को प्रकृति के नियम अर्थात् विज्ञान से ही ठीक किया जा सकता है। इसलिए तथाकथित चमत्कािरी पुरुष भी चमत्कानर से सभी बीमारों को ठीक नहीं कर सकते वे भी इलाज के लिए अस्पकताल बनाने की बात करते हैं।

सनातनधर्म चमत्का र पर आधारित नहीं है। यह बोध का धर्म है। इसलिए चमत्का‍र और अंधविश्वातस का सनातन धर्म में कोई स्थाकन नहीं है। यह तर्क करना कि दूसरे रिलीजन, मजहब, पंथ चमत्काार पर विश्वाैस कर रहे हैं तो हम भी करेंगे, वैसा ही है जैसे एक ऑंख वाले पड़ोसी से आगे निकलने के लिए अपनी दोनों आँखें फोड़ लेना। हाँ, ईश्वैर अवश्यख चमत्काेर कर सकता है परंतु उसके लिए किसी माध्यिम की जरूरत नहीं है। इसके लिए ईश्वयर के प्रति समर्पण, उपासना, प्रार्थनाऔरप्रभु का निमित्तए बन जाने की साधना ही पर्याप्टी है।

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