एक्टिविस्ट पत्रकारिता पर इन दिनों खूब सवाल उठ रहे हैं। वह चर्चा में भी है। पत्रकारिता के छात्र भी अक्सर इसे लेकर जिज्ञासा प्रगट करते हैं। आज कोई यह पूछे कि एक्टिविस्ट पत्रकारिता का बेहतर नमूना क्या हो सकता है तो स्वर्गीय वेदप्रताप वैदिक की पत्रकारिता इसका बेहतर उदाहरण हो सकती है। उन्हें जब लगा कि भारतीय भाषाओं और हिंदी के समर्थन में कलम की धार तेज होनी चाहिए तो उन्होंने हिंदी और भारतीय भाषाओं के लिए अपनी कलम को ही तलवार बना लिया। जब उन्हें लगा कि हमें भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज उठानी चाहिए, तब भी वे पीछे नहीं रहे। अंग्रेजी के वर्चस्व के खिलाफ भारतीय भाषाओं की प्रतिष्ठा स्थापन की बात हो या फिर भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन को गति देने का अवसर, वेद प्रताप वैदिक ने ना सिर्फ कलम को हथियार बनाया, बल्कि मंचों पर चढ़ अपनी वाणी से भी अपनी सक्रियता का परिचय दिया।
हमारे समाज की स्मृति बहुत छोटी है। पहले जरूरी स्मृतियों को जगाने और बचाने की भूमिका पत्रकारिता करती थी। लेकिन अब परिदृश्य बदल चुका है। पत्रकारिता में भी वैसी प्रतिभाएं नहीं बचीं, जो जरूरी स्मृतियों को प्रासंगिक तरीके से परोस सके। इसी सदी के पिछले दशक के आखिरी दिनों और मौजूदा दशक के शुरूआती दिनों में भारत में बदलाव की जो बयार बहनी शुरू हुई, उसकी जो पूर्व पीठिका रची गई, उसके एक महत्वपूर्ण पात्र वेदप्रताप वैदिक भी रहे। याद कीजिए, फरवरी 2010 में रामलीला मैदान में हुआ भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन। रामलीला मैदान के उस मंच पर संघ प्रमुख मोहन राव भागवत, संघ के वरिष्ठ प्रचारक और विचारक गोविंदाचार्य, बाबा रामदेव और अजीत डोभाल के साथ वेदप्रताप वैदिक भी मौजूद थे। उसी सम्मेलन में पहली बार अन्ना हजारे भी शामिल हुए थे। तब आज की दिल्ली की सरकार के मुखिया अरविंद केजरीवाल और उनके सहयोगी मनीष सिसोदिया मंच पर पीछे की कतार में बैठे थे। उसी बैठक में भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन को तेज करने का आह्वान किया गया। तब भारत की फिजां में भ्रष्टाचार की गंध फैलनी तेज हो गई थी। रही-सही कसर कुछ महीने बाद हुए कॉमनवेल्थ खेलों में पूरी हो गई। इसके बाद ही भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन देशव्यापी बना और देखते ही देखते भारत में बदलाव का प्रतीक बन गया। कह सकते हैं कि बदलाव की उस नींव में धोतीधारी वेदप्रताप वैदिक का भी योगदान रहा।
हिंदी को चेरी के स्थान से रानी बनाने के आंदोलन में वैदिक जी की भूमिका को लेकर शायद मौजूदा पीढ़ी कम ही जानती होगी। वैसे उसे इसकी जरूरत भी नहीं है। लेकिन बहुत कम लोगों को पता है कि उन्होंने जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के अंतरराष्ट्रीय अध्ययन केंद्र में अपनी थिसिस हिंदी में लिखी तो उसके लिए उन्हें दंडित किया गया। उनकी छात्रवृत्ति रोक दी गई। इसे लेकर संसद में जबरदस्त हंगामा हुआ था। इसके बाद विश्वविद्यालय प्रशासन को झुकना पड़ा और अंग्रेजी की बजाय उनका शोध प्रबंध हिंदी में ही स्वीकार करना पड़ा। हिंदी को लेकर उनका प्रेम किशोरावस्था में ही दिखा। महज तेरह साल की आयु में ही उन्होंने हिंदी सत्याग्रह में हिस्सा लिया और जेल गए।
हिंदी विरोधियों का तर्क रहा है कि अंग्रेजी पूरी दुनिया में सर्वस्वीकार्य और पढ़ाई का माध्यम है। इस धारणा को वैदिक जी ने अपनी पुस्तक ‘हिंदी पत्रकारिता: विविध आयाम’ में तोड़ा है। हिंदी के प्रति अपने प्रेम का एक किस्सा वे सुनाते थे। हिंदी विरोधी आंदोलन के दौरान अहमदाबाद में महारानी विक्टोरिया की मूर्ति तोड़ने का निश्चय हुआ। मूर्ति का पहरा बढ़ा दिया गया। उस आंदोलन में नेताजी के नाम से मशहूर समाजवादी नेता राजनारायण भी थे। प्रतिमा तक पहुंचने के लिए आंदोलनकारियों को एक दीवार फांदनी थी। तब वेदप्रताप वैदिक ही घुटनों के बल झुक घोड़ा बन गए और नेताजी उनकी पीठ पर चढ़कर दीवार फांद गए । इसके बाद मूर्ति तोड़ दी गई थी।
समाजवादी वैचारिकी से वैदिक पूरी तरह ओतप्रोत थे। समाजवाद के चिर विद्रोही राममनोहर लोहिया और मुलायम सिंह यादव से उनका गहरा रिश्ता रहा। शायद यही वजह है कि उनकी एक्टिविस्ट पत्रकारिता पर समाजवादी वैचारिकी का असर कहीं ज्यादा गहरा रहा है। पहले नवभारत टाइम्स और बाद में प्रेस ट्रस्ट ऑफ इंडिया की हिंदी सर्विस भाषा के संस्थापक संपादक रहे वेद प्रताप वैदिक लिखकर और बोलकर अपने आखिरी वक्त तक खुद को अभिव्यक्त करते रहे।
भारतीय कूटनीति पर पत्रकारिता के असर का जब भी सवाल उठेगा, हिंदुस्तान समाचार के संस्थापक बालेश्वर अग्रवाल और वेदप्रताप वैदिक का ही नाम प्रमुखता से सामने आएगा। अफगानिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति हामिद करजई समेत कई नेताओं ने वैदिक जी का अपनापा रहा। तुर्की, पाकिस्तान, बांग्लादेश, मारीशस आदि देशों के भी राजनय से उनका रिश्ता था। उनसे होने वाली बातचीत और मेल मुलाकातों में ये रिश्ते कई बार अति की तरह सामने आते थे, उससे कई बार उनसे मिलने वाले असहज भी महसूस करते थे। भारतीय राजनीति, पत्रकारिता और साहित्य की तमाम हस्तियों से उनका निजी रिश्ता रहा। सहज संवाद की कला में भी वैदिक माहिर थे।
वैदिक जी अब हमारे बीच नहीं हैं। सवाल यह है कि उन्हें किस रूप में याद किया जाए, एक्टिविस्ट पत्रकार के रूप में या फिर राजनय के जानकार के रूप में, भाषा आंदोलनकारी के रूप में या ऐसे समाजवादी के रूप में, जिसे वक्त जरूरत पर किसी भी धारा के व्यक्तित्व से संवाद और सहयोग से कभी हिचक नहीं रही। वे आतंकी हाफिज सईद से भी मिल सकते थे और इसके लिए सोशल मीडिया के मौजूदा दौर में आलोचनाओं का सामना भी कर सकते थे, मौजूदा प्रधानमंत्री की आलोचना के चलते भी पिछले कुछ साल से एक वर्ग के निशाने पर रहे। लेकिन मंद स्मित के साथ वे सबका सामना करते रहे। उन्होंने सार्वजनिक तौर पर कभी इसकी शिकायत नहीं की।
राजनीति से वे मुद्दा आधारित विरोध और समर्थन कर सकते थे, लेकिन एक विषय ऐसा है, जिसे लेकर उस राजनीति पर भी सवाल उठाने से नहीं हिचकते थे, जिससे उनकी नजदीकी हो। हाल के दिनों में उन्होंने राहुल गांधी पर उनके अंग्रेजी प्रेम को लेकर तल्ख टिप्पणियां तक की थीं।
भारतीय समाज जीवन से धोती-कुर्ता की पीढ़ी लगातार कम हो रही है। राजनीति और पत्रकारिता में तो धोती वाली पीढ़ी ना के बराबर ही बची है। वेदप्रताप वैदिक भारतीय पत्रकारिता की उस पीढ़ी का प्रतिधित्व करते रहे, जो धोती पहनकर भी आधुनिक और समकालीन सवालों से मुठभेड़ ही नहीं करती, बल्कि जरूरत पड़ने पर उसका समर्थन भी करती है। भारतीय राजनय के गहरे जानकार, भारतीयता की पत्रकारिता के प्रतिनिधि और हिंदी समेत भारतीय भाषाओं के कट्टर समर्थक को भविष्य इन तमाम रूपों में याद करता रहेगा...