3 से 10 जुलाई का एनकाउन्टर सप्ताह और इसके मायने

तूणीर - नवल गर्ग

Update: 2020-07-12 18:49 GMT

आओ जी, एनकाउंटर - एनकाउंटर खेलें। देखो ना, दुनिया भर में मरने मारने का खेल चल रहा है। जिंदगी न हुई पबजी का खेला हो गया है। मर जाओ या मार डालो। न भाव, न संवेदना , न उत्तेजना, न घबराहट । चारों तरफ रोष, गुस्सा, आवेश और अराजक बहशीपन का नशा । पूरी दुनिया पर भय और मौत का साया छा गया लगता है। ऐसा लग रहा है कि जिसको मारने का शौक हो वो एनकाउंटर करके मार रहा है। जिसको मरने में मजा और थ्रिल लग रहा है वो कायर, निर्मोही आत्महत्या करके स्वयं के शरीर को प्राणहीन बनाकर जिम्मेदारियों से छुटकारा पा रहा है लेकिन अपने परिवार वालों को जिंदा मार रहा है। असंख्य लोग कोरोना वायरस से मर रहे हैं। मरते ही जा रहे हैं। लाखों की मौत केवल समाचार पत्रों व न्यूज चैनल्स पर आंकड़ों की तालिका बन कर रह गई है।

सरहद पर भी यही हाल है। पहले वे समझ रहे थे कि हम पर भारी पड़ेंगे, जब हमारा जलवा बिखरा और हमने कमर कसी तो चीनी भाई लोग भागत नजर आए। चीनियों की हेकड़ी जमींदोज होती नजर आई । किसी ने सटीक तंज किया है -

चीनी को कब और कितना उबालना है चाय वाला बखूबी जानता है।

इससे पूरे विश्व में एक बार फिर मोदी की कूटनीति का डंका बज रहा है।

इधर उत्तर प्रदेश में योगी महाराज की अपराध विरोधी सफल मुहिम को 3 जुलाई को धक्का लगा पर बाबाजी ने 10 जुलाई के आते - आते अपनी कथनी और करनी का अंतर दूर कर दिया। सच पूछा जाये तो जनसामान्य तो सरल , सहज , गुणवत्तायुक्त जीवन जीना चाहता है, पर हममें से कुछ लोगों की अदम्य इच्छा और अपेक्षायें जीवन को उलझनों में फंसाती जाती हैं पर इसका दुष्परिणाम सबको प्रभावित करता जाता है। किसी ने सही कहा है -

जरा सी जिंदगी में व्यवधान बहुत हैं, तमाशा देखने को यहां इन्सान बहुत हैं.....!

खुद ही बनाते हैं हम पेचीदा जिंदगी को, वर्ना तो जीने के नुस्खे आसान बहुत हैं....!!

अब जरा सोचिये- चीन हरकत करके खुद का नमो के हाथों एनकाउंटर नहीं करवाता, विकास दुबे सीधा, सरल, सामान्य सहज जीवन जी रहा होता, चीन के वायरस को इंसान अन्य जगह नहीं फैलाता, ऐसे ही और और और अच्छी बातें हो रही होती तो गया सप्ताह - एनकाउंटर सप्ताह*के रूप में नहीं मनाना पड़ता। सब सुकून से रह पाते। इसीलिए परमात्मा से कहते हैं -

नजर यूं ही नहीं ढूंढ़ती तुम्हें....!

सबको सुकून की तलाश है....!!

इसके बाबजूद हमारी दुश्वारियां ही हमारी परेशानी का सबब बन रही हैं। विकास दुबे की जीवन गाथा के अंत पर जो प्रश्न उठ रहे हैं उनसे उपजी विधिक और सामाजिक शंकाओं का समाधान भी समाज को ही खोजना है। इसी संदर्भ में पुलिस महकमे का आक्रोश भी गहन विचार और वस्तुपरक चिंता का विषय है।

क्यूंकि मैं पुलिस हूँ

मैं जानता था कि फूलन देवी ने नरसंहार किया है लेकिन संविधान ने बोला कि चुप वो समाजवादी पार्टी की नेता है,उसके बॉडीगार्ड बनो मैं बना, क्यूँकि मैं पुलिस हूँ.......?

मैं जानता था कि शाहबुद्दीन ने चंद्रशेखर प्रसाद के तीन बेटों को मारा है लेकिन संविधान ने बोला कि चुप वो आर जे डी का नेता है उसके बॉडीगार्ड बनो,मैं बना क्यूँकि मैं पुलिस हूँ..... ?

मैं जानता था कि कुलदीप सेंगर का चरित्र ठीक नही है और उसने दुराचार किया है लेकिन संविधान ने बोला कि चुप वो इलाके? का रसूखदार नेता है, सत्ता तक उसकी पंहुच है, उसके बॉडीगार्ड बनो, मैं बना क्यूँकि मैं पुलिस हूँ....?

मैं जानता था कि मलखान सिंह बिशनोई ने भँवरी देवी को मारा है लेकिन संविधान ने बोला कि चुप वो कांग्रेस का नेता है उसके बॉडीगार्ड बनो, मैं बना क्यूँकि मैं पुलिस हूँ..?

मैं जानता हूँ कि दिल्ली के दंगो में अमानतुल्लाह खान ने लोगों को भड़काया लेकिन संविधान ने बोला कि चुप वो आप पार्टी का नेता है उसके बॉडीगार्ड बनो, मैं बना क्यूँकि मैं पुलिस हूँ......?

मैं जानता हूँ कि सैयद अली शाह गिलानी, यासीन मलिक, मीरवायज उमर फारूक आतंकवादियो का साथ देते हैं लेकिन संविधान ने बोला कि चुप वो कश्मीरी नेता हैं उनके बॉडीगार्ड बनो, मैं बना क्यूँकि मैं पुलिस हूँ......?

सबको पता था कि इशरत जहाँ,तुलसी प्रजापति आतंकवादी थे लेकिन फिर भी आपने हमारे बंजारा साहेब को कई सालों तक जेल में रखा। मैं चुप रहा क्योंकि मैं पुलिस हूँ ........?

कुछ सालों पहले हमने विकास दुबे , जिसने एक राजनेता का पुलिस थाने में ख़ून किया था, को आपके सामने प्रस्तुत किया था लेकिन उचित गवाही के अभाव में आपने उसे छोड़ दिया था,मैं चुप रहा, क्योंकि मैं पुलिस हूँ .........?

लेकिन हमारे वर्तमान और भविष्य के नियामकों! विकास दुबे ने इस बार ठाकुरों को नहीं, चंद्रशेखर के बच्चों को नही, भँवरी देवी को नही,किसी नेता को नही, मेरे अपने आठ पुलिस वालों की बेरहमी से हत्या की थी !

उसको आपके पास लाते तो देर से ही सही लेकिन आप मुझे उसका बॉडीगार्ड बनने पर ज़रूर मज़बूर करते इसी उधेड़बुन और डर से मेंने रात भर उज्जैन से लेकर कानपुर तक गाड़ी चलायी और कब नींद आ गयी पता ही नही चला और ऐक्सिडेंट हो गया और उसके बाद की घटना सभी को मालूम है।

मौजूदा सिस्टम के कर्णधारों! कृपया गलत नहीं समझिये। मैं यह नही कह रहा हूँ कि एन्काउंटर सही है लेकिन बड़े - बड़े वकीलों द्वारा अपने प्रोफेशन के नाम पर खुलेआम अपराधियों की पैरवी करते हुए उनको बचाना , फिर उनका राजनीति में आना और फिर मौजूदा सिस्टम के द्वारा हमें उनकी सुरक्षा में लगाना.... यह सब अब बंद होना चाहिये !

सच कह रहा हूँ अब थकने लगे हैं हम ! संविधान जो कई दशकों पहले लिखा गया था उसमें अब कुछ बदलाव की आवश्यकता है !

यदि बदलाव नही हुए तो ऐसी घटनाएँ होती रहेंगी और हम और आप कुछ दिन हाय तौबा करने के बाद चुप हो जाएँगे।

मूल में जाइए और रोग को जड़ से ख़त्म कीजिए ! दरअसल रोग हमारी क़ानून प्रणाली में हैं ! जिसे सही करने की आवश्यकता है, अन्यथा देर सबेर ऐसी घटनाओं के किस्से सुनने के लिए तैयार रहिये !

पुलिस को अपने विवेक से काम करने में सक्षम बनाइए !

हमें इन नेताओं के चंगुल से बचाइये ताकि देश और समाज अपने आप को सुरक्षित महसूस कर सकें !

प्रार्थी .......... नेताओं की कठपुतली 'हिंदुस्तान की पुलिसÓ

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उपरोक्त आशय का आलेख विकास दुबे के एनकाउंटर के बाद से सोशल मीडिया पर खूब पढ़ा जा रहा है। वास्तव में जिस ढ़ंग से 3 जुलाई को कानपुर के बिकरू गांव में गैंगसरगना विकास दुबे व उसके साथियों का एनकाउंटर करने गए पुलिस दल को अपने विभाग के क्रास खबरियों की नीच हरकतों के कारण विकास व उसके साथियों द्वारा वेहशीपन और अमानवीयता के साथ किये गये कायराना हमले में बेमौत मरना पड़ा वह अत्यंत हृदयविदारक घटना थी। उससे पुलिस का मनोबल तथा रूतबा दोनों चोटीले हुए।

इस घटनाक्रम में पुलिस की सीमाओं, बेबसी और सिस्टम को प्रश्नांकित करता या कहिए हम सबके अंतर्मन को झकझोरने वाला यह आलेख सिस्टम के नियंताओं जिनमें मैं और आप भी शामिल हैं, के द्वारा चिंतन मनन कर आवश्यक सुधार की दिशा में सबके सक्रिय होने के लिये, गम्भीरतापूर्वक कुछ कर गुजरने के लिए यह एक अवसर है।

पर क्या यह उम्मीद की जा सकती है कि ऐसा होगा ?

नहीं जनाब! सब कुछ हवा हवाई हो जाएगा और कुछ समय बाद हम सब ऐसी ही किसी अन्य वीभत्स घटना को घटित होते देखेंगे , देखते रहेंगे। शायद उसके घटित होने का इंतजार करेंगे।

(लेखक पूर्व जिला न्यायाधीश हैं।)

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