विश्व विजयी भारतीय संस्कृति के विश्व विजयी ध्वज वाहक है : स्वामी विवेकानंद
वेबडेस्क। विवेकानंद विश्व विजयी विवेकानंद, युवा विवेकानंद, जिसने पूरी दुनिया में हिंदुत्व भारतीयता की ध्वजा फहराई। भारतीय अध्यात्म के उन पहलुओं को विश्व के सामने रखा जिन्हें लोग विश्मृत कर चुके थे । भारत की गरिमा जिसके कारण अनादिकाल से पूरे विश्व में ही नहीं सृष्टि में थी । उसी भारत के वैभव की पताका स्वामी विवेकानंद ने विश्व में फहराई ,इसलिए स्वामी विवेकानंद को विश्व विजयी बताया गया । ये गौरव की बात तो है ही पर केवल इसलिए नहीं कि हम ऐसा मानते हैं इस बात को बीसवीं सदी के प्रारंभ होने के पहले ही पूरे विश्व ने माना और केवल माना ही नहीं भारतीय संस्कृति को जाना भी। इसलिए हैं स्वामी विवेकानंद विश्व विजयी । क्योंकि भारत ने तलवारों हथियारों के बल पर विश्व पर विजय नहीं की थी।
भारत ने अपने ज्ञान के आधार पर विश्व विजय की थी और उसी विजय का प्रतीक है विश्व धर्म सभा । 12 जनवरी 1863 में मकर सक्रांति के दिन जिस बालक का जन्म हुआ और जो वीरेश्वर के नाम से जाना गया बाद में नरेंद्र नाथ कहलाया पर हुआ स्वामी विवेकानंद । उनकी नरेंद्र नाथ से स्वामी विवेकानंद बनने की यात्रा ही विश्व के विजय की यात्रा है, सनातन भारतीय संस्कृति के विजय की यात्रा है जिस की पुनर्स्थापना में फिर पुनः भारतीय संस्कृति के अग्रदूत लगे हुए हैं। यह विश्व विजय का घटनाक्रम जो 19 वी सदी के आखिरी दशक में घटा वह एक शताब्दी बाद पुनः 21वी सदी के दूसरे दशक और तीसरे दशक में घट रहा है 19वीं सदी के अंतिम दशक में भारत की पराधीनता का दशक था 21वीं सदी का यह दूसरा और तीसरा दशक है जब हम पुनः भारत को विश्व गुरु बनने की तरफ ले जाने का प्रयास कर रहे हैं ।अब देश स्वाधीनता का अमृत महोत्सव मना रहा है।
हमे स्वामी जी के उस मार्ग का अनुसरण करना है जिससे हम हमारी स्वाधीनता को स्वतंत्रता की ओर ले जा सके हम अपने भारतीयता के अनुसार बनाए गए तंत्र में प्रवेश कर सकें । भारत विश्व का दिशा दर्शन करेगा जैसा स्वामी जी चाहते थे स्वामी जी का जीवन यदि हम देखें तो हमें स्मरण में आएगा कि नरेंद्र ने कोलकाता की गलियों में , बीथिकाओं में सच्चे गुरु की तलाश की थी वैसे ही पूरा विश्व भी व्यग्रता के साथ पूरी सृष्टि में एक गुरु की तलाश कर रहा है और भारत और भारतीय संस्कृति की ओर आशा से ठीक वैसे ही देख रहा है जैसे स्वामी जी ने शिकागो की विश्व धर्म सभा के मंच पर खड़े होकर 11 सितंबर 1893 में अमेरिकी भाइयों और बहनों कहा था तब दुनिया ने उनकी ओर देखा था । स्वामी ने ऊंचे स्वर में कहा था - मैं ऐसे धर्म का सन्यासी हूं जिसने विश्व को अस्मिता और व्यापक सहमति सिखाइ है । हम सभी धर्मों को सत्य मानते हैं ।
हमारे देश ने दूसरे देशों और दूसरे धर्म के पीड़ित शरणार्थियों को आश्रय दिया है। कभी यहूदियों को और कभी पारसियों को शरण दी है। मैंने तो बचपन से एक सूक्त स्मरण कर रखी है कि जिस प्रकार विभिन्न उद्गमों से बहती आती नदियां एक ही सागर में मिलती हैं उसी प्रकार विभिन्न धर्म मत उसी एक परम सत्य की ओर पहुंचते हैं । यह धर्म सम्मेलन तो मानो गीता के ही उस कथन की घोषणा कर रहा है..जो व्यक्ति जिस रूप में मुझे स्मरण करता है, भजता है, मेरे पास पहुंचता है। उसे मैं उसी रूप में स्वीकार करता हूं ।अनेक मार्गों से सभी मेरे पास ही पहुंचते हैं। मैं आशा करता हूं कि इस सम्मेलन से, विश्व में व्याप्त सांप्रदायिकता, कट्टरता और संकीर्णता दूर होगी। स्वामी का यह दिग्विजयी भाषण शिकागो की धर्म सभा में जब समाप्त हुआ तो वहाँ बैठी युवतियां कुर्सियों और सोफों को कूंदती हुए उन तक पहुंची और उनसे निवेदन किया कि स्वामी मुझे स्वीकार करिए पर स्वामी अमेरिका की चकाचौंध में भटके नहीं।
स्वामी जी युवाओं के पथप्रदर्शक हैं उनका जीवन हमको प्रेरणा देता है की हम कैसा जीवन बनाये। आज की युवा पीढ़ी महत्वाकांक्षी होना पसंद करती है पर महत्वाकांक्षा केसी हो मुझे महत्व मिले ऐसी आकांक्षा या सपना बड़ा हो। स्वामी जी पहले तो माँ दुर्गा में भरोसा नही करते थे पर जब रामकृष्ण परमहंस को गुरु मान लिया तो माँ को भी मान लिया। नरेन्द्र नाथ के जीवन में पिता के अवसान के बाद विपत्तियां आने लगी थी । ठाकुर ने एक दिन कहाँ की जा मां से मांग ले जो मांगना है जो मांगोगे वह मिलेगा मेरा आश्वासन है, तब माँ के समक्ष पहुंचकर विवेकानंद ने धन दौलत नही मांगी माँ से कहा भक्ति, विवेक और वैराग्य दो, लौटने पर जब गुरु ने पूंछा क्या मांगा तो उन्होंने बता दिया कि भक्ति वैराग्य और विवेक मांगा। स्वामी जी के बचपन की घटना है।उन्हें अंग्रेजी पढ़ने के लिए चुना गया पर उन्होंने मना कर दिया। आज भी अंग्रेजी के प्रति पागलपन हम देख सकते हैं । उन्होंने कहा क्या मेने बांग्ला पढ़ली , क्या मैने संस्कृत पढ़ ली अर्थात मातृभाषा का महत्व और हम उनकी विद्वता के बारे में तो जानते ही है उनके ज्ञान के बारे में प्रोफेसर हेनरी जॉन राईट लिखते है की अमेरिका के सारे विद्वानो को मिला दो तो भी विवेकानंद की विद्वत्ता अधिक होगी।
आज के युवा स्वाभिमान को बहुत अधिक महत्व देते हैं स्वाभिमानी होना भी चाहिए। स्वामी जी का जीवन देखें तो पता चलता है कि व्यक्तिगत स्वाभिमान के पक्षधर नहीं थे उन्हें कई बार अपमान सहना पड़ा पर उन्होंने उसे अपना स्वाभिमान का हनन नहीं माना पर जब भी देश या धर्म के मान की बात आई तो उन्होने मुखर होकर विरोध दिखाया और जवाब दिया । जब वे भारत लौट रहे थे तब जहाज में एक पादरी ने हिन्दुधर्म के बारे में अनर्गल प्रलाप किया तो उन्होंने पादरी से कहा कि एक शब्द भी मेरे धर्म के बारे मे कहा तो समुद्र में उठाकर फेंक दूंगा। इसी प्रकार अमेरिका में वो कहते है कि हिन्द महासागर के तल में जितना कीचड़ है वह सब अंग्रेजों के मुंह पर मल दिया जाय तो भी ज्यादा नहीं होगा उन्होंने मेरी भारत माता को बहुत कष्ट दिया है।
स्वामी जी का पूरा जीवन प्रेरणास्पद है।
- " उन्होंने कहां की मेरे बच्चों में चाहता हूं लोहे की नसें और फौलाद के समान स्नायु , जिनके भीतर ऐसा मन वास करता हो जो कि वज्र के समान पदार्थ का बना हो , बल पुरुषार्थ , क्षात्रवीर्य और ब्रह्म तेज। आज्ञा पालन के गुण का अनुशीलन करो , लेकिन अपने धर्म विश्वास को ना खोओ।
- " गुरुजनों के अधीन हुए बिना कभी भी शक्ति केंद्रीय भूत नहीं हो सकती और बिखरी हुई शक्तियों को केंद्रीय भूत किए बिना कोई महान कार्य नहीं हो सकता।"
- उन्होंने कहा कि "नीतिपरायण तथा साहसी बनो, अन्तः करण पूर्णतया शुद्ध रखो , प्राणों के लिए भी कभी ना डरो । धार्मिक मत मतांतरों को लेकर व्यर्थ में माथापच्ची मत करो। कायर लोग ही पापाचरण करते हैं । वीर पुरुष कभी पापा अनुष्ठान नहीं करते। यहां तक कि कभी भी वे मन में भी पाप का विचार नहीं लाते।"
- "मैं चाहता हूं कि मेरे सब बच्चे, मैं जितना उन्नत बन सकता था उससे सौ गुना बने, तुम लोगों में से प्रत्येक को महान शक्तिशाली बनना होगा। मैं कहता हूं अवश्य बनना होगा । आज्ञा पालन ध्येय के प्रति अनुराग तथा ध्येय को कार्यरूप में परिणित करने के लिए सदा प्रस्तुत रहना इन तीनों के रहने पर कोई भी तुम्हे अपने मार्ग से विचलित नहीं कर सकता । "
- " भारत तभी जगेगा जब विशाल हृदय वाले सैकड़ों स्त्री-पुरुष भोग विलास ओर सुख की सभी इच्छाओं को विसर्जित कर मन , वचन और शरीर से उन करोड़ों भारतीयों के कल्याण के लिए सचेष्ट होंगे जो दरिद्रता तथा मूर्खता के अगाध सागर में निरन्तर नीचे डूबते जा रहे हैं ।"
- "रात दिन कहते रहो हे गौरीनाथ, हे जगदंबे मुझे मनुष्यत्व दो , मां मेरी दुर्बलता और कायरता दूर कर दो , मुझे मनुष्य बनाओ ।"
- "उठो , जागो, स्वयं जगकर औरों को जगाओ अपने मानव जन्म को सफल करो । उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत उठो जागो और तब तक रुको नहीं जब तक कि लक्ष्य प्राप्त ना हो जाए।" अखिलेश श्रीवास्तव